Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Stahanakvasi Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla Publisher: Agam Prakashan SamitiPage 21
________________ के रूप में, वैदिकदर्शन ने प्रात्मतत्त्व और भौतिकतत्त्व के रूप में इसी बात को मान्यता प्रदान की है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि आस्तिक दर्शनों की भित्ति आत्मवाद है। विशेषकर जैन धर्म ने प्रात्मतत्त्व का बहुत ही सूक्ष्मता के साथ विस्तृत विवेचन किया है। जैन चिन्तन की धारा का उद्गम आत्मा से होता है और अन्त मोक्ष में प्राचारांग सूत्र का प्रारम्भ ही प्रात्म-जिज्ञासा से हमा है। उसके आदि वाक्य में ही कहा गया है.---'इस संसार मे कई जीवों को यह ज्ञान और भान नहीं होता कि उनकी प्रात्मा किस दिशा से प्राई है और कहाँ जाएगी? वे यह भी नहीं जानते कि उनकी प्रात्मा जन्मान्तर में संचरण करने वाली है या नहीं? मैं पूर्व जन्म में कोन था और यहां से मर कर दूसरे जन्म में क्या होऊंगा-यह भी वे नहीं जानते / इस प्रात्मजिज्ञासा से ही धर्म और दर्शन का उदगम है। वेदान्त दर्शन का आरम्भ भी ब्रह्मसूत्र के 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' से हुमा है / यद्यपि वेदों में भौतिक समृद्धि हेतु यज्ञादि के विधान और इन्द्रादि देवों की स्तुति की बहुलता है किन्तु उत्तरवर्ती उपनिषदों और प्रारण्यकों में आत्मतत्त्व का गहन चिन्तन एवं निरूपण हुआ है। उपनिषद् के ऋषियों का स्वर निकला-'आत्मा हि दर्शनीय, श्रवणीय मननीय और ध्यान किए जाने योग्य है। आत्मजिज्ञासा से प्रारम्भ हा यह चिन्तन-प्रवाह क्रमशः विकसित होता हमा, सहस्रधाराओं में प्रवाहित होता हा अन्ततः ममृतत्त्व--मोक्ष के महासागर में विलीन हो जाता है। उपनिषद् में मंत्रेयी याज्ञवल्क्य से कहती है-'जिससे मैं अमृत नहीं बनती उसे लेकर क्या करू! जो अमृतत्वका साधन हो वही मुझे बताइए। जैन चिन्तकों के अनुसार प्रत्येक प्रात्मा की अन्तिम मंजिल मुक्ति है / मुक्ति की प्राप्ति के लिए ही समस्त साधनाएँ और आराधनाएँ हैं। समस्त प्रात्मसाधकों का लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना है अतएव वे साधक मुमुक्षु कहलाते हैं / से लगाकर मोक्ष की प्राप्ति पर्यन्त पुरुषार्थ में ही प्रात्मा की कृतार्थता और सार्थकता है एवं यही सिद्धि है। प्रतः जैन सिद्धान्त द्वारा मान्य नवतत्त्वों में पहला तत्त्व जीव है और अन्तिम तत्व मोक्ष है। बीच के तत्त्व प्रात्मा की विभाव परिणति से बंधने वाले अजीव कर्मदलिकों की विभिन्न प्रक्रियायों से सम्बन्धित हैं। सुख देने वाला पुद्गल-समूह पुण्यतत्त्व है। दुःख देने वाला और ज्ञानादि को रोकने वाला तत्व पाप है। प्रात्मा की मलिन प्रवृत्ति प्रास्रव है / इस मलिन प्रवृत्ति को रोकना संवर है। कर्म के प्रावरण का प्रांशिक क्षीण होना निर्जरा है। कर्मपुदगलों का प्रात्मा के साथ बंधना बंध तत्त्व है। कर्म के प्रावरणों का सर्वथा क्षीण हो जाना मोक्ष है। जीवात्मा जब तक विभाव दशा में रहता है तब तक वह अजीव पुद्गलात्मक कर्मवर्गणाओं से प्राबद्ध हो जाता है। फलस्वरूप उसे शरीर के बन्धन में बंधना पड़ता है। एक शरीर से दूसरे शरीर में जाना पड़ता है। इस प्रकार शरीर धारण करने और छोड़ने की परम्परा चलती रहती है। यह परम्परा ही जन्ममरण है। इस जन्म-मरण के चक्र में विभावदशापन्न प्रात्मा परिभ्रमण करता रहता है। यही संसार है। इस जन्ममरण की परम्परा को तोड़ने के लिए ही भव्यात्माओं के सारे धार्मिक और आध्यात्मिक प्रयास होते हैं। स्वसंवेदनप्रत्यक्ष एवं अनुमान- पागम प्रादि प्रमाणों से आत्मा की सिद्धि होती है / प्राणिमात्र को 'मैं हूं' ऐसा स्वसंवेदन होता है / किसी भी व्यक्ति को अपने अस्तित्व में शंका नहीं होती। 'मैं सुखी हूं' अथवा 1. इहमेगेसिनो सण्णा हवइ कम्हाग्रो दिसामो वा प्रायनो अहमसि अत्थि मे पाया उववाइए पत्थि मे प्राया उववाइए ? के वा अमंसि ? के वा इप्रो चुप्रो इह पेच्चा भविस्सामि / -~प्राचारांग 1-1 2. प्रात्मा वै दृष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः / ---बृहदारण्योपनिषद् 2-4-5 // 3. येनाहं नामृता स्यां किं तेन कुर्याम् / यदेव भगवानवेद तदेव मे व हि // बृहदारण्योपनिषद् [19] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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