Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्राथमिक उपोद्घात]
इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन को प्रारम्भ करने का प्रयास प्रयोजनयुक्त है, निष्प्रयोजन नहीं।
२. अभिधेय-प्रस्तुत शास्त्र का अभिधेय (विषय) जीव और अजीव के स्वरूप को प्रतिपादित करना है। जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट हो जाता है। जीवों और अजीवों का अभिगम अर्थात् परिच्छेद-ज्ञान जिसमें हो या जिसके द्वारा हो वह जीवाजीवाभिगम अध्ययन है। सूत्रकार ने प्रस्तुत सूत्र को सार्थक नाम से विभूषित किया है।
३. सम्बन्ध-प्रस्तुत शास्त्र में दो प्रकार का सम्बन्ध है-(१) उपायोपेयभावसम्बन्ध और (२) गुरुपर्वक्रमरूप सम्बन्ध । तर्क का अनुसरण करने वालों की अपेक्षा से उपायोपेयभावसम्बन्ध है। नय तथा वचनरूप प्रकरण उपाय है और उसका परिज्ञान उपेय है।
गुरुपर्वक्रमरूप सम्बन्ध केवल श्रद्धानुसारियों की अपेक्षा से है। अर्थ की अपेक्षा यह जीवाजीवाभिगम तीर्थंकर परमात्मा ने कहा है और सूत्र की अपेक्षा द्वादशांगों में गणधरों ने कहा है। इसके पश्चात् मन्दमतिजनों के हित के लिए अतिशय ज्ञान वाले चतुर्दश-पूर्वधरों ने स्थानांग नाम तृतीय अंग से लेकर पृथक् अध्ययन के रूप में इस जीवाजीवाभिगम का कथन किया और उसे व्यवस्थापित किया है। अतः यह तृतीय उपांगरूप में कहा गया है। ऐसे ही सम्बन्धों का विचार कर सूत्रकार ने 'थेरा भगवंतो पण्णवइंसु' कहा है।
४. मंगल-प्रस्तुत अध्ययन सम्यग्ज्ञान का हेतु होने से तथा परम्परा से मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला होने से स्वयमेव मंगलरूप है, तथापि श्रेयांसि बहुविघ्नानि' के अनुसार विघ्नों की उपशान्ति के लिए तथा शिष्य की बुद्धि में मांगलिकता का ग्रहण कराने के लिए शास्त्र में मंगल करने की परिपाटी है। इस शिष्टाचार के पालन में ग्रन्थ के आदि, मध्य और अन्त में मंगलाचरण किया जाता है। आदि मंगल का उद्देश्य ग्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति और शास्त्रार्थ में होने वाले विघ्नों से पार होना है। मध्यमंगल उसकी स्थिरता के लिए है तथा शिष्य-प्रशिष्य परम्परा तक ग्रन्थ का विच्छेद न हो, इसलिए अन्तिम मंगल किया जाता है।
प्रस्तुत अध्ययन में 'इह खलु जिणमयं' आदि मंगल है। जिन नाम का उत्कीर्तन मंगल रूप है।
द्वीप-समुद्र आदि के स्वरूप का कथन मध्यमंगल है। क्योंकि निमित्तशास्त्र में द्वीपादि को परम मंगलरूप में माना गया है। जैसा कि कहा है-'जो जं पसत्थं अत्थं पुच्छइ तस्स अत्थसंपत्ती।'
'दसविहा सव्वे जीवा' यह अन्तिम मंगल है। सब जीवों के परिज्ञान का हेतु होने से इसमें मांगलिकता
अथवा सम्पूर्ण शास्त्र ही मंगलरूप है। क्योंकि वह निर्जरा का हेतुभूत है। जैसे तप निर्जरा का कारण १. जीवानामजीवानामभिगमः परिच्छेदो यस्मिन तज्जीवाजीवाभिगमं नाम्ना।
तं मंगलमाईए मज्झे पज्जंतए य सत्थस्स। पढमं सत्थत्थाविग्धपारगमणाय निद्दिटुं॥ तस्सेव य थेज्जत्थं मज्झिमयं अंतिमंपि तस्सेव। अव्वोच्छित्ति निमित्तं सिस्सपसिस्साइवंसस्स। विशेषा. भाष्य
२.