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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र डा 15 defeating an enemy. But one who is forgiving, disciplined, and Jitendriya
as complete control over the senses) has no need of even a single 15 one of these."
र सूत्र ४६ : तए णं से पोट्टिले देवे तेयलिपुत्तं अमच्चं एवं वयासी-“सुटु णं तुमं तेयलिपुत्ता ! 15 एयमटुं आयाणाहि त्ति कट्ट दोच्चं पि तच्चं पि एवं वयइ, वइत्ता जामेव दिसं पाउब्भूए तामेव ड र दिसिं पडिगए। र सूत्र ४६ : पोट्टिल देव ने अमात्य तेतलिपुत्र से कहा-“हे तेतलिपुत्र ! तुम्हारा कहना ठीक है। र किन्तु इस बात को तुम गहराई से समझ आचरण में उतारो।" देव ने दो-तीन बार यह बात टा 15 दोहराई और अपने स्थान को लौट गया। र 46. God Pottil said to Tetaliputra, “Your statement is absolutely correct.
But you should profoundly ponder it, understand it and adopt it in your 15 conduct." The god repeated this two or three times and then returned to his 15 abode.
र सूत्र ४७ : तए णं तस्स तेयलिपुत्तस्स सुभेणं परिणामेणं जाइसरणे समुप्पन्ने। तए णं तस्स ट 15 तेयलिपुत्तस्स अयमेयारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पन्ने-“एवं खलु अहं इहेव जंबुद्दीवे दीवे डा
र महाविदेहे वासे पोक्खलावतीविजए पोंडरीगिणीए रायहाणीए महापउमे नामं राया होत्था। तए । 15 णं अहं थेराणं अंतिए मुंडे भवित्ता जाव चोद्दसपुव्वाइं अहिज्जित्ता बहूणि वासाणि सामन्नपरियागं
र पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए महासुक्के कप्पे देवे उववन्ने। 15 सूत्र ४७ : यह सुनकर शुभ परिणाम उत्पन्न होने से तेतलिपुत्र को जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त हुआ।
र उसके मन में विचार उत्पन्न हुआ-“मैं जम्बूद्वीप के महाविदेह क्षेत्र की पुष्कलावती विजय की 15 राजधानी पुण्डरीकिणी नगरी में महापद्म नाम का राजा था। मैंने स्थविर मुनि के पास मुण्डित ट 15 होकर दीक्षा ली थी। फिर चौदह पूर्यों का अध्ययन करके, अनेक वर्षों तक श्रमण जीवन बिताकर
र अन्त में एक मास की संलेखना करके शरीर त्याग किया था और महाशुक्रकल्प में देव रूप में जन्म 5 लिया था।
4 7. This urging by the god inspired Tetaliputra and with purifying Kattitude he acquired the Jatismaran Jnana. He remembered, "I was King 5 Mahapadma of Pundarikini city, the capital of Pushkalavati Vijaya in 15 Mahavideh area in the Jambu continent. I had shaved my head and got 5 initiated by a great ascetic. After studying the fourteen sublime canons and
leading a long disciplined ascetic life I had taken the ultimate vow of one
month duration. After death I reincarnated as a god in the MahashukraEkalp. 6 (140)
JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA Ennnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnn
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