________________
फ
चौदहवाँ अध्ययन : तेतलिपुत्र
परिशिष्ट
अपूर्वकरण- आत्मोत्थान के पथ पर वह स्थिति जहाँ आत्मा इतनी निर्मल हो जाती है कि साधक को आत्म-साक्षात आत्म-संवेदन होता है। ऐसा इससे पूर्व कभी नहीं हुआ था इस कारण इस स्थिति को अपूर्वकरण का नाम दिया है। जैन दर्शन में क्रमबद्ध आत्मोत्थान की भूमिका को गुणस्थान नामक चौदह स्तरों से परिभाषित किया है। अपूर्वकरण आठवां गुणस्थान है। इस स्तर पर पहुँचने के पश्चात् कर्म क्षय की गति तीव्र हो जाती है। पूर्ण निर्मलता का मार्ग प्रशस्त हो जाता है।
CHAPTER - 14 : TETALIPUTRA
500
APPENDIX
Apoorvakaran-Facing the unprecedented. On the spiritual path this is the state when the soul attains so much purity that the practicer sees his soul or has the vision or realization of the soul entity. As it is a unique experience this state is known as Apoorvakaran. In Jain philosophy progressive uplift has been defined as fourteen steps or levels named Gunasthan. Apoorvakaran is the eighth Gunasthan. When one ttains this state the speed of the shedding of Karmas increases and the gateway to absolute purity is revealed.
Jain Education International
फ
( १४५ )
For Private & Personal Use Only
"
(145)
Co
www.jainelibrary.org