Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana, Surendra Bothra, Purushottamsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan

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Page 420
________________ - । फUUUUUUUUUUUUUUUUUUUU09 र द्वितीय श्रुतस्कंध : धर्मकथा (३४७ ) डी 5 तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्जसुहम्मस्स अणगारस्स अंतेवासी अज्जजंबू णामं अणगारे दी र जाव पज्जुवासमाणे एवं वयासी-जइ णं भंते ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं छट्ठस्स 15 अंगस्स पढमसुयक्खंधस्स नायाणं अयमढे पण्णत्ते, दोच्चस्स णं भंते ! सुयक्खंधस्स धम्मकहाणं टा र समणेणं जाव संपत्तेणं के अद्वे पण्णत्ते ? र सूत्र ३ : आर्य सुधर्मा को वन्दना करने के लिए परिषद् निकली और उनका धर्मोपदेश सुनकर । 15 वापस लौट गई। र काल के उस भाग में आर्य सुधर्मा के अन्तेवासी आर्य जम्बू नामक अनगार उनकी उपासना 15 करते हुए बोले-"भन्ते ! जब श्रमण भगवान महावीर ने छठे अंग के ‘ज्ञात श्रुत' नामक प्रथम द २ श्रुतस्कंध का पूर्वोक्त अर्थ बताया है तो धर्मकथा नामक द्वितीय श्रुतस्कंध का उन्होंने क्या अर्थ ड र कहा है? 15 3. A delegation of citizens came to pay homage to him and returned after F the discourse. During that period of time ascetic Arya Jambu, a disciple of Arya Sudharma, said after the formal routine worship, "Bhante! If the meaning of 15 the Jnata Shrut, the first part of the sixth canon, as explained by Shraman द 5 Bhagavan Mahavir, is as narrated earlier, then what is the meaning of the cond part that is known as Dharma Katha as explained by him?" 15 सुधर्मा स्वामी का उत्तर सूत्र ४ : एवं खलु जंबू ! समणेणं जाव संपत्तेणं धम्मकहाणं दस वग्गा पन्नत्ता, तं जहा- ८ १. चमरस्स अग्गमहिसीणं पढमे वग्गे। २. बलिस्स वइरोयणिंदस्स वइरोयणरण्णो अग्गमहिसीणं बीए वग्गे। ३. असुरिंदवज्जियाणं दाहिणिल्लाणं भवणवासीणं इंदाणं अग्गमहिसीणं तइए वग्गे। ४. उत्तरिल्लाणं असुरिंदवज्जियाणं भवणवासिइंदाणं अग्गमहिसीणं चउत्थे वग्गे। ५. दाहिणिल्लाणं वाणमंतराणं इंदाणं अग्गमहिसीणं पंचमे वग्गे। ६. उत्तरिल्लाणं वाणमंतराणं इंदाणं अग्गमहिसीणं छठे वग्गे। ७. चंदस्स अग्गमहिसीणं सत्तमे वग्गे। ८. सूरस्स अग्गमहिसीणं अट्ठमे वग्गे। ९. सक्कस्स अग्गमहिसीणं णवमे वग्गे। र १०. ईसाणस्स अग्गमहिसीणं दसमे वग्गे। 卐nnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnn - 15 SECOND SECTION : DHARMA KATHA (347 Snnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnn Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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