Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana, Surendra Bothra, Purushottamsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan

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Page 433
________________ प्रज्ज् ( ३६० ) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र 26. Arya Pushpachula warned her, "Beloved of gods! we are Nirgranth Shramanis (Jain female ascetics) and we are not allowed to indulge in so much care of the body. But you are washing your limbs (etc.) again and again and sprinkling water over the ground. You have become indisciplined, and so you should condemn this state of disgraceful conduct and do the prescribed atonement." सूत्र २७ : तए णं सा काली अज्जा पुप्फचूलाए एयमट्टं नो आढाइ जाव तुसिणीया संचिट्ठा । सूत्र २७ : आर्या काली ने गुरुणी की यह बात स्वीकार नहीं की और मौन ही रही । 27. Arya Kali did not accept these instructions of her teacher and remained silent. सूत्र २८ : तए णं ताओ पुप्फचूलाओ अज्जाओ कालिं अज्जं अभिक्खणं अभिक्खणं हीलेंति, णिंदंति, खिंसंति, गरिहंति, अवमण्णंति, अभिक्खणं अभिक्खणं एयमहं निवारेंति । सूत्र २८ : इस पर आर्या पुष्पचूला सहित अन्य आर्याएँ उसकी अवहेलना करने लगीं, निन्दा करने लगीं, अवज्ञा करने लगीं, गर्हा करने लगीं, चिढ़ाने लगीं और बार-बार उसके इस निषिद्ध । कार्य में बाधा देने लगीं । 28. As a result of this, Arya Pushpachula and the other Sadhvis of the group started neglecting, criticizing, disregarding and disdaining her. They also tried to restrain her from indulging in prohibited activities. सूत्र २९ : तए णं तीसे कालीए अज्जाए समणीहिं णिग्गंथीहिं अभिक्खणं अभिक्खणं । हीलिज्जमाणीए जाव निवारिज्जमाणीए इमेयारूवे अज्झित्थिए जाव समुपज्जित्था - ' जया णं अहं अगारवासमज्झे वसित्था, तया णं अहं सयंवसा, जप्पभिई च णं अहं मुंडा भविता अगाराओ अणगारियं पव्वइया, तप्पभिदं च णं अहं परवसा जाया, तं सेयं खलु मम कल्लं पाउप्पभायाए । रयणीए जाव जलते पाडिक्कियं उवस्सयं उवसंपज्जित्ताणं विहरित्तए' त्ति कट्टु एवं संपेहेइ, संपेहित्ता कल्लं जाव जलते पाडिएक्कं उवस्सयं गिण्हइ, तत्थ णं अणिवारिया अणोहट्टिया ' सच्छंदमई अभिक्खणं अभिक्खणं हत्थे धोवइ, जाव आसयइ वा सयइ वा । सूत्र २९ इस व्यवहार से आर्या काली के मन में विचार उठा - "जब मैं गृहस्थ थी तब स्वाधीन थी। जब से मैंने दीक्षा अंगीकार की है तब से मैं पराधीन हो गई हूँ । अतः कल सूर्योदय होने पर अलग उपाश्रय (स्थान) ग्रहण करके रहना ही मेरे लिए अच्छा होगा ।" दूसरे दिन । प्रातःकाल उसने अपने निश्चय के अनुसार पृथक् उपाश्रय में रहना आरम्भ कर दिया। वहाँ कोई ' रोकने-टोकने वाला नहीं रहा इसलिए वह स्वच्छंद हो गई और अंगों को धोने आदि मनमाने कार्य जब-तब करने लगी। (360) Ha Jain Education International JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SUTRA For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org

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