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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
their five sense organs, suffer misery and are caught in the cycles of rebirth indefinitely.
धन्य का अहिच्छत्रा पहुँचना
सूत्र १५ : तए णं से धण्णे सगडीसागडं जोयावेइ जोयावित्ता जेणेव अहिच्छत्ता णयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अहिच्छत्ताए णयरीए बहिया अग्गुज्जाणे सत्थनिवेस करे, करिता सगडी सागडं मोयावेइ ।
तए णं से धण्णे सत्थवाहे महत्थं महग्घं महरिहं रायरिहं पाहुडं गेहइ, गेण्हित्ता बहुपुरिसेहि सद्धिं संपरिवुडे अहिच्छत्तं नयरिं मज्झमज्झेणं अणुप्पविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव कणगकेऊ राया तेणेव उवागच्छइ। उवागच्छित्ता करयल जाव वद्धावेइ, वद्धावित्ता तं महत्थं पाहुडं उवणेइ ।
सूत्र १५ : यथा समय धन्य सार्थवाह ने गाड़ियाँ जुतवाईं और अहिच्छत्रा नगरी को प्रस्थान किया। वहाँ पहुँच नगरी के बाहर के प्रधान उद्यान में पड़ाव डाला और गाड़ियाँ खुलवा दीं।
तत्पश्चात् राजा को भेंट करने योग्य बहुमूल्य उपहार और अनेक व्यक्तियों को साथ ले वह अहिच्छत्रा नगरी के बीच होता हुआ राजा कनककेतु के पास गया। दोनों हाथ जोड़ उसने यथाविधि राजा का अभिनन्दन किया और वे बहुमूल्य उपहार राजा के सामने रख दिये ।
DHANYA REACHES AHICCHATRA
15. As usual Dhanya merchant broke camp and resumed his journey. When he reached Ahicchatra city he made camp in the main garden outside the city.
He selected valuable and suitable gifts for the king and entered the town with a large group of people. Arriving at the court of King Kanak-ketu he greeted the king and placed the gifts before him.
सूत्र १६ : तए णं से कणगकेऊ राया हट्टतुट्ठे धण्णस्स सत्थवाहस्स तं महत्थं जाव पाहुडं पच्छिइ । पडिच्छित्ता धणं सत्थवाहं सक्कारेइ संमाणेइ सक्कारित्ता संमाणित्ता उस्सुक्कं वियरइ, वियरित्ता पडिविसज्जेइ । भंडविणिमयं करेइ, करित्ता पडिभंडं गेहइ, गेण्हित्ता सुहंसुहेणं जेणेव चंपानयरी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मित्त-णाइ अभिसमन्नागए विउलाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ ।
सूत्र १६ : राजा कनककेतु ने प्रसन्न और संतुष्ट हो धन्य सार्थवाह के बहुमूल्य उपहार स्वीकार किए और उसका सत्कार-सम्मान किया। साथ ही उसे शुल्क मुक्त कर विदा किया। धन्य ने अपने माल की बिक्री की और नया माल खरीद कर सुखपूर्वक चम्पा नगरी लौट आया। अपने मित्रों और स्वजनों से मिला और सुखपूर्वक जीवन बिताने लगा ।
16. King Kanak-ketu happily accepted the costly gifts and duly honoured Dhanya merchant. He also exempted Dhanya from any levies. In due course Dhanya merchant sold all his merchandise, bought new stocks, and happily
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JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SÚTRA
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