Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana, Surendra Bothra, Purushottamsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan

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Page 413
________________ फ्र (380) ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Bhagavant, showed him the alms he had collected and sought permission to eat. After this he swallowed the food prescribed for an ascetic without any fondness or relishing, exactly as a snake enters its hole. सूत्र २६ : तए णं तस्स पुंडरीयस्स अणगारस्स तं कालाइक्कतं अरसं विरसं सीय- लुक्ख पाण-भोयणं आहारियस्स समाणस्स पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स स आहारे णो सम्मं परिणमइ । तए णं तस्स पुंडरीयस्स अणगारस्स सरीरगंसि वेयणा पाउब्भूया उज्जला जाव दुरहियासा पित्तज्जरपरिगयसरीरे दाहवक्कंतीए विहर । सूत्र २६ : वह बासी, (कालातिक्रान्त) अरस, विरस, ठण्डा और रूखा भोजन पुण्डरीक मुनि पूरी तरह से पचा नहीं पाये । मध्य रात्रि के समय जब वे धर्म जागरणा कर रहे थे तब उनके शरीर में तीव्र, दुस्सह, (आदि ) वेदना उत्पन्न हुई और उनका शरीर पित्त ज्वर से जलने लगा । 26. That stale, tasteless, flavourless, cold, and dry food proved to be hard to digest for ascetic Pundareek. During the night when he was doing his ascetic duties he got an attack of a sharp, acute, extreme, intolerable and agonizing stomach ache. He also got bile-fever and had burning sensation throughout his body. उग्र साधना का सुफल सूत्र २७ : तए णं ते पुंडरीए अणगारे अत्थामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कार-परक्कमे करयल जाव एवं वयासी नमोऽत्थु णं अरिहंताणं जाव संपत्ताणं णमोऽत्थु णं थेराणं भगवंताणं मम धम्मारियाणं धम्मोवएसयाणं, पुव्विं पि य णं मए थेराणं अंतिए सव्वे पाणाइवाए पच्चक्खाए जाव मिच्छादंसणसल्ले णं पच्चक्खाए' जाव आलाइयपडिक्कते कालमासे कालं किच्चा सव्वट्टसिद्धे उववण्णे। ततोऽणंतरं उव्वट्टित्ता महाविदेहे वासे सिज्झिहिइ जाव सव्वदुक्खाणमंतं काहि । सूत्र २७ : उस तीव्र वेदना के कारण पुण्डरीक अनगार निस्तेज, निर्बल, निर्वीर्य और पुरुषार्थ रहित हो गये। उन्होंने दोनों हाथ जोड़ कर कहा 'अरिहन्तों को नमस्कार, सिद्धि प्राप्त भगवंतों को नमस्कार ( शक्रस्तव के समान ) । मेरे धर्माचार्य और धर्मोपदेशक स्थविर भगवन्त को नमस्कार । स्थविर गुरुजनों के सम्मुख मैंने पहले भी समस्त प्राणातिपात मिथ्यादर्शनशल्य रूप अठारह पापस्थानों का त्याग किया था “।" इस प्रकार विधिवत अन्तिम प्रत्याख्यान कर, शरीर का त्याग कर आलोचना प्रतिक्रमण करके कालमास में आयु क्षीण होने पर काल करके सर्वार्थसिद्ध नामक अनुत्तर विमान में देवरूप में उत्पन्न हुए। वहाँ से च्यवन कर सीधे महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर सिद्ध गति प्राप्त करेंगे। JNĀTĀ DHARMA KATHANGA SŪTRA (340) Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org

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