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जम ( २२६ )
ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र डा रनारद आगमन
सूत्र १३३ : इमं च णं कच्छुल्लणारए दंसणेणं अइभद्दए विणीए अंतो अंतो य कलुसहियए SI मज्झत्थोवत्थिए य अल्लीण-सोम-पियदंसणे सुरूवे अमइल-सगलपरिहिए कालमियचम्म-टी 5 उत्तरासंगरइयवत्थे दंडकमंडलुहत्थे जडा-मउड-दित्तसिरए जन्नोवइय-गणेत्तिय- मुंजमेहलवागलधरे डा हत्थकयकच्छभीए पियगंधव्वे धरणिगोयरप्पहाणे संचरणावरणिओवयणउप्पयणि-लेसणीसु यड संकामणि-अभिओगि-पण्णत्ति-गमणी-थंभीसु य बहुसु विज्जाहरीसु विज्जासु विस्सुयजसे इढे टा रामस्स य केसवस्स य पज्जुन्न-पईव-संब-अनिरुद्ध-निसढ-उम्मुय-सारण-गय-सुमुह-दुम्मुहाईण द जायवाणं अधुट्ठाणय कुमारकोडीणं हिययदइए संथवए कलह-जुद्ध-कोऊहलप्पिए भंडणाभिलासी ड बहुसु य समरेसु य संपराएसु य दंसणरए समंतओ कलहं सदक्खिणं अणुगवेसमाणे ट
असमाहिकरे दसार-वरवीरपुरिस-तिलोक्कबलवगाइं आमंतेऊण तं भगवतिं पक्कमणिंद 5 गगण-गमण-दच्छं उप्पइओ गगणमभिलंघयंतो गामा-गर-नगर-खेड-कब्बड-मडंब-दोणमुह-पट्टण- 5 र संवाह-सहस्समंडियं थिमियमेइणीतलं निब्भरजणपदं वसुहं ओलोइंतो रम्मं हथिणाउरं उवागए टा 5 पंडुरायभवणंसि अइवेगेण समोवइए। र सूत्र १३३ : तभी कच्छुल्ल नामक नारद वहाँ आ पहुँचे। वे देखने में अत्यन्त भद्र और विनीत र जान पड़ते थे, किन्तु भीतर से केलिप्रिय होने के कारण उनका मन कलुषित था। वे मध्यस्थवृत्ति के ट 5थे तथा आश्रित जनों को उनका दर्शन प्रिय लगता था। वे दीखने में सुरूप थे तथा उन्होंने उज्ज्वल द
शकल-वस्त्र (अखण्ड वस्त्र) पहन रखा था। उत्तरासंग के रूप में वक्ष पर काला मृग-चर्म धारण किया S र हुआ था। हाथ में दण्ड और कमण्डल था। उनका मस्तक जटा रूपी मुकुट से शोभित था। आभूषण के ट
रूप में उन्होंने यज्ञोपवीत, रुद्राक्ष की माला, पूँज की कटिमेखला पहन रखे थे तथा वल्कल वस्त्र द 5 धारण किये हुए थे। उनके हाथ में कच्छपी नाम की वीणा थी और वे संगीत प्रिय थे। वे पृथ्वी पर ड र बहुत कम चलते थे। संचरणी (चलने की), आवरणी (ढंकने की), अवतरणी (नीचे उतरने की), ड र उत्पतनी (ऊँचे उड़ने की) श्लेषणी (चिपकाने वाली), संक्रामणी (पर-शरीर-प्रवेश), अभियोगिनी ट 15 (सोना-चाँदी बनाना), प्रज्ञप्ति (परोक्ष वृत्तान्त बताना), गमनी (दुर्गम स्थान में गमन), स्तंभिनी (स्तब्ध ८ र करना) आदि अनेक विद्याधरों वाली विद्याओं में प्रवीण होने के कारण उनकी कीर्ति का बहुत प्रसार ड र था। वे बलदेव और वासुदेव के प्रेमपात्र थे। वे प्रद्युम्न, प्रदीप, सांब, अनिरुद्ध, निषध, उन्मुख, रसारण, गजसुकुमाल, सुमुख, दुर्मुख आदि साढ़े तीन कोटि यादव कुमारों के प्रिय और प्रशंसा पात्र ट 15थे। उन्हें कलह, युद्ध और कोतूहल प्रिय थे। वे भांड के समान बोलने के अभिलाषी थे। अनेक समर ड २ व सम्पराय (युद्ध विशेष) देखने के रसिक थे। चारों ओर दक्षिणा देकर (अथवा चतुरता से) कलह S र की खोज करते थे और कलह करवा कर उद्विग्नता उत्पन्न कराते थे। दशार वीरों के चित्त भ्रम का 5 कारण बने रहने वाले वे नारद गगन में गमन करने की शक्ति प्रदायिनी भगवती प्रक्रमणी विद्या का ट 5 आह्वान करके आकाश में उड़ते और हजारों ग्राम, आकर, नगर, खेट, कर्बट, मण्डव द्रोणमुख, 5 र पट्टन और संबाधों से शोभित अनेक लोगों से व्याप्त धरती का अवलोकन करते-करते रमणीय ड र हस्तिनापुर में आये और द्रुत गति से राजा पाण्डु के महल में उतरे।
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JNĀTĀ DHARMA KATHĀNGA SŪTRA 卐Annnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnnn
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