Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana, Surendra Bothra, Purushottamsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan

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Page 337
________________ 卐 ( २७० ) Yudhisthir and went out to collect alms. While they were walking they heard many people talking-"Beloved of gods! Tirthankar Arishtanemi along with five hundred and thirty six ascetics went to the peak of the Ujjayant mountain (Girnar) and after a month long fast became Siddh, enlightened, and liberated from the cycles of rebirth ending all sorrows." ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र सूत्र २१८ : तए णं ते जुहिट्ठिलवज्जा चत्तारि अणगारा बहुजणस्स अंतिए एयम सोच्चा हत्थिकपाओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता जेणे सहसंबवणे उज्जाणे, जेणेव जुहिट्ठिले अणगारे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता भत्तपाणं पच्चुवेक्खति, पच्चुवेक्खित्ता गमणागमणस्स पडिक्कमंति, पडिक्कमित्ता एसणमणेसणं आलोएंति, आलोइत्ता भत्तपाणं पडिदंसेंति, पडिदंसित्ता एवं वयासी सूत्र २१८ : यह समाचार सुन चारों मुनि हस्तीकल्प नगर से बाहर निकले और सहस्राम्रवन में युधिष्ठिर अनगार के पास आये। वहाँ उन्होंने आहार- पानी की प्रत्युपेक्षणा की, गमनागमन का प्रतिक्रमण किया, एषणा- अनेषणा की आलोचना की और आहार- पानी युधिष्ठिर अनगार को दिखला कर बोले 218. Getting this news, the four ascetics came out of Hastikalp city and reached Yudhisthir in the Sahasramravan garden. They inspected the food they had brought, did the Pratikraman for movement, reviewed proper and improper actions, showed the food to Yudhishthir and said - सिद्धपद-प्राप्ति सूत्र २१९ : ' एवं खलु देवाणुप्पिया ! जाव कालगए, तं सेयं खलु अम्हं देवाणुप्पिया ! इमं पुव्वगहियं भत्तपाणं परिवेत्ता सेतुंज्जं पव्वयं सणियं सणियं दुरुहित्तए, संलेहणाझूसणा-झोसियाणं कालं अणवकंखमाणाणं विहरित्तए, त्ति कट्टु अण्णमण्णस्स एयमट्ठ पडिणित्ता तं पुव्वगहियं भत्तपाणं एगंते परिट्ठवंति, परिट्ठवित्ता जेणेव सेतुंज्जे पव्वए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सेतुंज्जं पव्वयं दुरुहंति, दुरुहित्ता जाव कालं अणवकंखमाणा विहरति । Jain Education International सूत्र २१९ : "हे देवानुप्रिय ! भिक्षा के लिए नगर में जाने पर हमने सुना कि तीर्थंकर अरिष्टनेमि कालधर्म को प्राप्त हुए हैं। अतः अच्छा यह होगा कि भगवान के निर्वाण की सूचना सुनने से पूर्व ग्रहण किये हुए इस आहार पानी को त्याग कर धीमे-धीमे शत्रुंजय पर्वत पर चढ़ें और संलेखना तथा कर्मों का शोषण व क्षीण करने की क्रियाएँ करते हुए मृत्यु की आकांक्षा रहित हो ध्यान मग्न हो जायें।" सभी अनगार इस बात पर सहमत हो गये और तब लाई हुई आहार सामग्री को यथाविधि यथास्थान परठकर ( डालकर ) शत्रुंजय पर्वत की ओर प्रस्थान किया। वहाँ जाकर अपने निश्चयानुसार समय व्यतीत करने लगे । (270) For Private Personal Use Only JNĀTA DHARMA KATHANGA SÜTRA ஊ தி www.jainelibrary.org

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