Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Shreechand Surana, Surendra Bothra, Purushottamsingh Sardar
Publisher: Padma Prakashan

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Page 346
________________ सत्रहवाँ अध्ययन : आकीर्ण ( २७९ ) moment they started their journey and went hundreds of Yojans ahead on the Lavan sea within a few days. ( details as in ch. 8, story of Arhannak) सूत्र ४ : तए णं तेसिं जाव बहूणि उप्पाइयसयाइं जहा मागंदियदारगाणं जाव कालियवाए य तत्थ समुत्थिए । तए णं सा णावा तेणं कालियवाएणं आघोलिज्जमाणी आघोलिज्जमाणी संचालिज्जमाणी संचालिज्माणी संखोहिज्जमाणी संखोहिज्जमाणी तत्थेव परिभमइ । तसे णिज्जाएमईए णट्ठसुईए णट्ठसणे मूढदिसाभाए जाए यावि होत्था । ण जाणइ कयरं देसं वा दिसिं वा विदिसं वा पोयवहणे अवहिए त्ति कट्टु ओहयमणसंकप्पे जाव झियाय । सूत्र ४ : वहाँ लवण समुद्र में उन्हें अनेकों उत्पातों का सामना करना पड़ा (विस्तृत विवरण माकन्दी पुत्र की कथा के समान - अ : ९ ) । उसी समय समुद्री तूफान भी आरम्भ हो गया और उनकी नौका वायु के थपेड़ों से बारम्बार काँपने लगी, डोलने लगी, ऊपर-नीचे गिरने लगी और एक स्थान पर ही चक्कर काटने लगी । ऐसी विकट स्थिति में माँझी की बुद्धि मारी गई व अनुभव लुप्त हो गया और वह संज्ञाहीन जैसा हो गया । दिशा का ज्ञान भी नहीं रहा । और यह भान भी नहीं रहा कि नाव किस प्रदेश में है अथवा किस दिशा या विदिशा में जा रही है। वह भग्न संकल्प हो चिन्ता मग्न हो गया । 4. In the sea they had to face many difficulties. They were caught in a storm and the ship started trembling, drifting, rising and falling, and whirling under the force of the gale. (details as in ch. 9, the story of Makandi) In this dangerous situation the captain of the ship lost his wit and poise and was bewildered. He lost all sense of direction and thus was unaware of the position and the direction of movement of the ship. He became disoriented and started brooding. उत्पातों से मुक्ति सूत्र ५ : तए णं ते बहवे कुच्छिधारा य कण्णधारा य गब्भिल्लगा य संजत्ता णावा वाणिया य जेणेव से निज्जामए तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता एवं वयासी - 'किण्णं तुमं देवाणुप्पिया ! ओहयमणसंकपे जाव झियायसि । ' तणं से णिज्जाम ते बहवे कुच्छिधारा य कण्णधारा य गब्भिल्लगा य संजत्ता णावा वाणियगा य एवं वयासी– ' एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! णट्ठमईए जाव अवहिए त्ति कट्टु तओ ओह मणसं जाव झियामि ।' सूत्र ५ : यह देख नाव में रहे अनेक कुक्षिधार ( चप्पू चलाने वाले), कर्णधार, गल्लिक (सामान्य श्रमिक) तथा वणिक यात्री निर्यामक- माँझी के पास आये और पूछा - " देवानुप्रिय ! तुम भग्न संकल्प (निराश ) हो चिबुक हथेली पर टिकाये चिन्ता क्यों कर रहे हो ?” CHAPTER-17: THE HORSES Jain Education International For Private Personal Use Only ( 279 ) www.jainelibrary.org

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