Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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सूत्रकृताङ्गसूत्रे छाया-लिप्तास्तीवाभितापेन उज्झिता असमाहिताः।
नाऽतिकण्डूयितं श्रेयो अरुषोऽपराध्यति ॥१३॥ अन्वयार्थ-(तिपाभितावेणं) तोत्राभितापेन-कर्मबन्धनेन (लित्ता) लिप्ता उपलिप्ता: (उज्झिधा): उज्झिता: सद्विवेकरहिताः (असमाहिया) असमाहिताः शुभाध्यवसायरहिताः (अरुयस्स) अरुषो-वणस्थ (अतिकंडूइयं) अतिकण्डूयितं (न सेयं) न श्रेयः यतः (अवरज्झइ) अपराध्यति दोषमुत्पादयतीत्यर्थः ॥१३॥
टीका-'तियामितावण' तीव्राभितापेन षड्जीवनिकायोपमर्दनपुरःसरसंपादिताधाको दिष्ट भोजनेन । तथा-मिथ्यादृष्टया साधुनिन्दया च संजाताs. पुनः कहते हैं-'लित्ता तिब्बाभितावेणं' इत्यादि।
शब्दार्थ--'तिव्याभितावेण-सीवाभितापेन' आप लोग तीव्र अभिताप अर्थात् कर्मबन्ध से 'लिता-लिप्ताः' उपलिप्त 'उज्झिया-उज्झिता' सदसद्विवेक से रहित 'असमाहिया-असमाहिता' शुभ अध्यवसाय से रहित हैं। 'अरुयस्त-अरुषः' वग-घावके 'अतिकंडूइय-अतिकंडुयितम्' अत्यन्त खुजलाना 'न सेयं-न श्रेयः' अच्छा नहीं हैं 'अवरज्जह-अपराध्यति' क्योंकि वह कण्डूयन दोषावह ही है ॥१३॥ ____ अन्वयार्थ--तुम लोग तीव्र कर्मबन्ध से लिप्त हो सम्यग् विवेक से हीन हो और शुभ अध्यवसाय से रहित हो । घाव को बहुत खुज. लाना ठीक नहीं, क्योंकि ऐसा करने से दोष की उत्पत्ति होती है ॥१३॥
टोकार्थ--तीव्र कर्मबन्ध से अर्थात् षट्काय की हिंसापूर्वक सम्पादित आधाकर्मी एवं उद्दिष्ट आहार का उपभोग करने के कारण तथा
4जी सू॥२ ४३ छ है-- 'लित्ता तिमाभित्तावेणं' याह
av --'तिव्वाभितावेणं-तीव्रभित पेन' मा५ । तीन ममिता५ अर्थात् म थी 'लित्ता-लिप्ताः' अलि 'उठिझया-उज्झित्ताः' सहविवथा २हित अने 'असमाहिया-असमताहिता' शुम मध्यवसायथा हित छी. 'अरुयम्स-अरुषः' न-धाने अतिकंडूइयं अतिकण्डूयितम्' अत्यंत मानेन सेयं-न श्रेयः' सा३ नथी 'अवरज्जइ-अपराध्यति' म त ड्रयन દેષાવહ જ છે. ૧૩
સૂત્રાર્થ–સાધુએ તે આક્ષેપકર્તાને કહેવું જોઈએ કેતમે તીવ્ર કર્મ બન્યથી લિપ્ત છે, સમ્યમ્ વિવેકથી રહિત છે અને શુભ અધ્યવસાયથી પણ રહિત છ ઘાવને બહુ ખંજવાળ તે ઉચિત ન ગણાય, કારણ કે એવું કરવાથી દેષની ઉત્પત્તિ થાય છે. ૧૩
ટીકાર્થ છકાયની હિંસાપૂર્વક પ્રાપ્ત આધાકર્મ, ઉષ્ટિ આદિ દોષયુક્ત આહારને ઉપભેગ કરવાને કારણે તથા મિથ્યાદિષ્ટ અને સાધુની નિદા દ્વારા
શ્રી સૂત્ર કતાંગ સૂત્ર : ૨