Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 676
________________ Deate ६६४ सुत्रकृताङ्गसूत्रे पापकर्माऽनुष्ठातारः चतुर्गतिभ्रमणहेतुकं साम्परायिकं कर्म बानन्ति, तथा-राग द्वेषकषायकलुषितान्तःकरणाः कुर्वन्ति-अनेकविधं कर्म इतिभावः ॥८॥ ___ तदेव बालवीर्यमुपदर्थ तदुपसंहरबाह-'एयं' इत्यादि । मूलम्-एयं सकम्मवीरियं बालाणं तु पैवेइयं । इत्तो अम्मवीरयं पंडियाणं सुणेह में ॥९॥ छाया-एतत्सकर्मवीर्य बालानां तु प्रवेदितम् । अतोऽकर्मवीर्य पण्डितानां शृणुत मे ॥९॥ प्रकार के असाता रूप दुःख को उत्पन्न करने वाले होते हैं । सत् के विवेक से रहित अज्ञानी जीव ही ऐसे कर्म उपार्जन करते हैं। तात्पर्य यह है कि स्वयं पाप कर्म का अनुष्ठान करने वाले अज्ञानी जीव चतुर्गति में भ्रमण करने के कारण साम्परायिक कर्म का बन्ध करते हैं तथा जो राग द्वेष से कलुषित हैं, वे अनेक प्रकार के कर्म उपार्जन करते हैं ॥८॥ इस प्रकार बालवीर्य को दिखला कर उपसंहार करते हैं'एयं सकम्मवीरियं' इत्यादि। शब्दार्थ-'एयं-एतत्' यह 'बालाणं तु-बालानां तु अज्ञानियों का 'सकम्मवीरियं पवेड्यं-सकर्मयीयं प्रवेदितम्' स्वकर्मवीर्य कहागया है 'इत्तो-अतः' अब यहां से 'पंडियाणं-पंडितानाम् उत्तम साधुओं का 'अकम्मवीरियं-अकर्मवीर्यम्' अकर्मवीर्य 'मे-मे' मेरेसे 'सुणेह-शृणुन' हे शिष्यो सुनो ॥९। પ્રકારની અશાતા (અશાંતિ) રૂ૫ દુઃખને ઉત્પન્ન કરવાવાળા હોય છે. સત્ અસત્તા વિવેક વિનાના અજ્ઞાની જીવજ એવા કર્મોનું ઉપાર્જન કરે છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે–પિત-પાપકર્મનું અનુષ્ઠાન કરવાવાળા અજ્ઞાની જીવે ચતુર્ગતિમાં ભ્રમણ કરવાને કારણે સાંપરાયિક કર્મને બંધ કરે છે તથા જેઓ રાગદ્વેષથી મલીન થયેલા છે. તેઓ અનેક પ્રકારના કર્મોનું ઉપાર્જન (પ્રાપ્તિ કરે છે. પેટા આ રીતે બાલવીર્યને બતાવીને ઉપસંહાર કરતાં કહે છે કે'एय सम्मवीरिय” त्यादि। wale ---'एय-एतत्' । 'बालाणं तु-बालानां तु' अशानियो नु 'सकम्म वीरिय पवेहय-सकर्मवीर्यम् प्रवेदितम्' २१४ पीय . 'इत्तो-अतः' वे महिंथी 'पंडियाणं-पंडितानाम्' उत्तम साधुया 'अकम्मवीरियं-अकर्मवीर्यमू' अभीय 'मे-में भारी पसेका 'सुणेह-श्रुणुत' शिष्य! तमे सालmen શ્રી સૂત્ર કતાંગ સૂત્ર : ૨

Loading...

Page Navigation
1 ... 674 675 676 677 678 679 680 681 682 683 684 685 686 687 688 689 690 691 692 693 694 695 696 697 698 699 700 701 702 703 704 705 706 707 708 709 710 711 712 713 714 715 716 717 718 719 720 721 722 723 724 725 726 727 728