Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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सूत्रकृताङ्गसूत्रे
'वचनमेव श्रेष्ठमिति 'वयंति' वदन्ति शास्त्रतत्त्ववेत्ता :, न तु परिपीडोत्पदकं सत्यं सङ्ख्योहितमिति कृत्या तथा चोक्तम्-
'लोकेऽपि श्रवते वादो यथा सत्येन कौशिकः । पतितो वधयुक्तेन नरके तीव्र वेदने' ॥
अन्यदपि - ' तव काणं काणत्ति पंडगं पंडगत्ति वा । बाहियं वा विरोगित्ति तेणं चोरोत्ति नो वदे ॥' नीतिशास्त्रेऽप्युक्तम् - सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात्सत्यमप्रियम् । सत्यं च नानृतं ब्रूया देष धर्मः सनातनः ॥ २ ॥ इति, शास्त्र के तत्व के वेता सत्यों में उसी सत्य को श्रेष्ठ कहते हैं जो निरवय हो अर्थात् जिससे पर को पीड़ा उत्पन्न न होती हो। जो वचन परपीडाजनक हो वह श्रेष्ठ नहीं है, क्यों कि सत्पुरुषों के लिए जो हितकर हो, वही सत्य कहलाता है। कहा भी है- 'लोकेऽपि श्रूयते वादो' इत्यादि । कौशिक हिंसाकारी सत्य से तीव्र वेदना वाले नरक में पड़ा ऐसा वाद लोक में भी सुना जाता है ॥ १॥
और भी कहा है- 'तहेच काणं काणन्ति' इत्यादि
काणे को काणा न कहें, पंडक (नपुंसक) को पंडक न कहे, बीमार को बीमार न कहे और चौर को चोर न कहे, क्योंकि ऐसा कहने से उन्हें पीड़ा पहुँचती है ॥ १ ॥ नीतिशास्त्र में भी कहा है- 'सत्यं ब्रूपात् प्रियं ब्रूपात्'
इत्यादि ।
એટલે કે પરને
કદી પણ શ્રેષ્ઠ કહી હાય, તેને જ સત્ય
શાસ્રજ્ઞોએ એજ સત્યને શ્રેષ્ઠ કહ્યુ` છે કે જે નિરવ પીડાકારી ન હાય. જે વચન પરપીડાજનક હાય તેને શકાય નહીં, કારણ કે સત્પુરુષોને માટે જે હિતકર हेवाय छे - अधु च। छे - " लेकेिऽपि श्रूयते वादे ।" त्याहि "शि हिंसाકારી સત્યને કારણે તીવ્ર વેદનાવાળા નરકમાં પડયા, એવી માન્યતા લેકમાં પ્રચલિત છે એટલે કે એવુ લાકો કહે છે ” ૧૫
वजी वु छे " तहेव काण काणत्ति ” छत्याहि “अशाने आओ। हेपाय नहीं, नपुंसउने नपुंसक हवाय नहीं, श्रीभाરને ખીમાર ન કહેવાય અને ચોરને ચોર ન કહેવાય કારણ કે તેમ કહેવાથી तेने दुःख थाय छे. नीतिशास्त्रमां या मेवु धु छे - “सत्यं ब्रूयात् प्रियं
શ્રી સૂત્ર કૃતાંગ સૂત્ર : ૨