Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
६१४
सत्रकृताङ्गसूत्रे __ अन्वयार्थः--(जे) यः साधुः (धम्मलई) धर्मलब्धम्-दोषरहितमाहारम् (पिणिहाय) विनिधाय (मुंजे) भुते (जे) य:-भिक्षुः (वियडेण) विकटेन-अचित्तजलेनापि (साह१) संहृत्यांगान्यपि (सिणाइ) स्नाति-देशसर्वस्नानं करोति (जे) यः (धोबई) धावति-वस्त्रं पादौ वा (लूसयइ वत्थं) च पुनः वस्त्रं स्वकीयं लूषयति शोमार्थ दीर्घ वस्त्र इस्वं करोति इस्वं वा दीर्घ करोति (आहाहु) अथाहुः तीर्थकरगणधरादय आहुः कथयन्ति (से णागणियस्स दूरे) स एतादृशव्यवहारवान् नाग्न्यस्य निर्ग्रन्थमावस्य दूरे वर्तते इति ॥२१॥ 'साहटु-संहृत्य' अंगो को संकोच करके भी 'सिणाइ-स्नाति' स्नानकर ता है तथा 'जे-यः' जो 'धोवई-धावति' अपने वस्त्र अथवा पैर आदि को धोता है 'लूसयई वत्थं-लूषयति च वस्त्रम्' और शोभा के लिए बडे वस्त्र को छोटा अथवा छोटे वस्त्र को वडा करता है 'अहाहु-अथाहुः' तीर्थकर तथा गणधरों ने कहा है कि 'से नागणियस्स दूरे-स नाम्यस्य दूरे' वह संयम मार्ग से दूर है ॥२१॥ ___ अन्वयार्थ--जो साधु धर्मलब्ध अर्थात् निर्दोष आहार को रखकर सनिधि करके अर्थात् संचित कर पीछेसे भोगता है, तथा जो अचित्त जल से भी स्नान करता है, वस्त्र या पैरों को धोता है, जो शोभा के लिए लम्बे वस्त्र को छोटा या छोटे को लम्बा करता है, वह निग्रंन्यभाव से दूर रहता है, ऐसा तीर्थकर और गणधर कहते हैं।२१। सायन श२ ५५ 'सिणाइ-स्नाति' स्नान रे छ. तथा 'जे-ये रस 'धोवई-घावति' पाताना पसे। अथवा ५ विरेने धुणे छे. 'लूसयई वत्थलषयति च वस्त्र' मन शालान भाटे मोटर सने नानु अथवा नाना पस्सने भाटु ३३ छ 'अहाहु-अथाहुः' तीथ ४२ तथा अधये घुछ -'से मागणियस्स दूरे-स नान्यस्य दूरे' ते सयम भागथा २ ४ छ. ॥२१॥
સૂત્રાર્થ–જે શિથિલાચારી સાધુ એટલે કે નિર્દોષ આહારને સંગ્રહ કરીને (સંચય કરીને) ભગવે છે, જે અચિત્ત જળ વડે સ્નાન કરે છે, જે વસ્ત્ર અને હાથ પગ ધાવે છે જે શેભાને માટે લાંબા વસ્ત્રને ટ્રેક અને
કા વસ્ત્રને લાંબુ કરે છે, તે સાધુ નિભાવથી દૂર રહે છે, એવું તીર્થકર અને ગણધરીનું કથન છે. ૨૧
શ્રી સૂત્ર કતાંગ સૂત્ર : ૨