Book Title: Agam 02 Ang 02 Sutrakrutanga Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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समयार्थबोधिनी टीका प्र. श्रु. अ.३ ३.३ वादपराजितान्यतीर्थिकधृष्टताप्र० १२९ मूलम् -रागंदोसाभिभूयप्पा मिच्छत्तेण अभिदुता ।
आउस्ले सरणं जति टंकणा ईर्ष पव्वयं ॥१८॥ छाया--रागद्वेषाभिभूतात्मानः मिथ्यात्वेन अभिद्रुताः ।
___ आक्रोशान् शरणं यान्ति टंकणा इव पर्वतम् ॥१८॥ अन्वयार्थः-(रागदोसामिभूयप्पा) रागद्वेषाभिभूतात्मानः येषामात्मानो रागद्वेषाभ्यामाच्छादिताः (मिच्छत्तेण अभिद्दुता) मिथ्यात्वेनाभिद्रुताः विपरीत
"एवं बहुगावि मूढा" इत्यादि।
इसी प्रकार बहुसंख्यक भी मूढपुरुष प्रमाणभूत नहीं होते जो संसारगमन में चक्रगति को तथा बन्ध और मोक्ष की गति को नहीं जानते है ॥४॥१७॥
शब्दार्थ--'रागदोसामिभूयप्पा-रागद्वेषाभिभूतात्मानः' राग और द्वेष से जिनका आत्मा छिपा हुआ है ऐसे तथा 'मिच्छत्तेण अभिता' मिथ्यात्वेन अभिद्रुताः' मिथ्यात्व से भरे हुए अन्यतीर्थी 'आउसेआक्रोशान्' शास्त्रार्थ से पराजित होने पर असभ्यवचनरूप गाली आदि का 'सरणं जंति-शरणं यान्ति' आश्रय ग्रहण करते हैं 'टंकणा-टडणा' पहाड़ में रहने वाली म्लेच्छ जाती के लोग युद्ध में हार जाने पर 'पब्वयं इव-पर्वतम् इव' जैसे पर्वत का आश्रय लेते हैं ॥१८॥
अन्वयार्थ-जो राग और द्वेष से युक्त हैं, मिथ्यात्व से व्याप्त हैं, वे वाद में पराजित होकर असभ्य भाषणरूप आक्रोश (क्रोध) की
'एवं बहुगावि मूढा' त्यादि
એજ પ્રમાણે જે માણસે સંસારમાં પરિભ્રમણ કરાવનાર કર્મબન્ધના સ્વરૂપને જાણતા નથી અને મોક્ષ પ્રાપ્તિ માર્ગ જાણતા નથી એવાં અનેક મૂઢ માણસોનાં વચનને પ્રમાણભૂત માની શકાય નહીં. (૪) ૧ળા
शwi-'रागदासाभिभूयप्या-रागद्वेषाभिभूतात्मानः' । मन था भनी मात्मा छुपाये छे सेवा तथा 'मिच्छत्तण अभिद दुता-मिथ्यात्वेन अभिद्रताः' मिथ्यात्पथी मरेस भी अन्य तीथी 'आउसे-आक्रोशान्' शाखा
थी पति पाथी असल्ययन३५ ७० वगेरेना 'सरणं जंति-शरणंयान्ति' माश्रय ४३ 'टंकणा-टङ्कणा' ५७मा २हेवावाणी म्छ
तीन युद्धमा हारी तय त्यारे 'पव्ययं इव-पर्वतम् इव' वी शत પર્વતને આશ્રય લે છે. ૧૮
સૂત્રાર્થ–જે લેકે રાગ અને દ્વેષથી યુક્ત હોય છે અને મિથ્યાત્વથી ભરેલા હોય છે, તેઓ વાદમાં પરાજિત થવાથી અસભ્ય વચન રૂપ આક્રોશ
શ્રી સૂત્ર કતાંગ સૂત્ર : ૨