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आदिनाथ चरित्र
प्रथम पर्व
करने लगी । 'यह शतबल राजा का ही रूपान्तर है, उसका ही दूसरा रूप है, उसी की आत्मा की छाया है, ऐसा समझ कर, सामन्त और मंत्री - अमीर उमराव और वज़ीर लोग उसकी इज़ात, उसकी प्रतिष्ठा और उसका आदर-सत्कार एवं मान करने लगे ।
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शतबलका दीक्षाग्रहण । स्वर्गारोहण ।
इस तरह पुत्र को राज्यपद पर बैठाकर शतबल राजा ने, आचार्य के चरणों के समीप जाकर, शमसाम्राज्य – चारित्र ग्रहण किया । उसने असार विषयों को त्यागकर, साररूप रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, और सम्यग्वारित्र को धारण किया : तथापि उसकी समचित्तता अखण्ड रही । उस जितेन्द्रिय पुरुष ने कषायों को इस तरह जड़ से नष्ट कर दिया; जिस तरह नदी अपने किनारे के वृक्षों को समूल उखाड फेंकती है। वह महात्मा मनको आत्मस्वरूप में लीनकर, वाणी को नियम में रख, काया से चेष्टा करता हुआ, दुःसह परिषहों को सहन करने लगा । मैत्री, करुणा, प्रमोद और माध्यस्थ, – इन चार भावनाओं से जिस की ध्यान-सन्तति वृद्धि को प्राप्त हो गई है, ऐसा वह शतबल राजर्षि, मुक्ति में ही हो इस तरह, अमन्द आनन्द में मग्न रहने लगा । ध्यान और तप द्वारा, अपने आयुष्य को लीलामात्र में ही शेष करके, वह महात्मा देवताओं के स्थान को प्राप्त हुआ; यानी देवलोक में गया ।