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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम-पर्व ___ अनाथकी तरह अपनी सेना को पराजित हुई देखकर, राजा की आज्ञा की तरह, क्रोध में सेनापति सुषेण को जोश आगया। उसके नेत्र और मुँह लाल होगये और क्षणभर में मनुष्य रूप में जैसे अग्निहो, इस तरह वह दुर्निरीक्ष्य हो गया ; अर्थात् क्रोध के मारे वह ऐसा लाल हो गया, कि उसकी तरफ कोई देख न सकता था। राक्षस पति की तरह समस्त पराई सेना के पास करने के लिये स्वयं तैयार हो गया। अंग में उत्साह-जोशआ जाने से, उसका सोनेका कवच शरीरमें सटकर दूसरी चमड़ी के समान शोभा देने लगा। कवच पहनकर, साक्षात् जयरूप हो, इस तरह, वह सुषेण सेनापति कमलापीड़ नामक घोड़े पर सवार हुआ। वह घोड़ा अस्सी अंगुल ऊँचा और नवाणु अँगुल विशाल था तथा एक सौ आठ अंगुल लम्बा था। उसका मस्तक भाग सदा बत्तीस अंगुल की उँचाई पर रहता था। चार अंगुल के उसके बाहु थे, सोलह अंगुलकी उसकी जाँघे थीं, चार अंगुल केघुटने थे, चार अंगुल ऊँचे खुर थे, गोलाकार और घूमा हुआ उसका बीचला भाग था; विशाल, किसी कदर नर्म और प्रसन्न करनेवाले पिछले भाग से वह शोभायमान था, कपड़ेके तन्तु जैसे नर्म-नर्म रोम उसके शरीर पर थे। उस पर श्रेष्ठ बारह 'भावर्त या भौरे थे। वह शुद्ध लक्षणों से युक्त था, जवान तोते ' के पंखों जैसी उसकी कान्ति थी। कभी भी उसने चाबुककी 'चोट न खाई थी, वह सवार के मनके माफ़िक चलनेवाला था, . रमजड़ित सोने की लगाम के बहाने से मानो लक्ष्मी ने निज