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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम प्रव
उस शत्रुञ्जय-पर्वत पर भरत राजाने मेरु-पर्वतकी चूलिकाकी राबबरीका दावा करनेवाला एक रत्न-शिलामय चैत्य बनवाया और जैसे अन्त:करणमें चेतना विराजती है, वैसंही उसके मध्यमें पुण्डरीकजीके साथ-ही-साथ भगवान् ऋषभस्वामीकी प्रतिमा स्थापित करवायी।
भगवान ऋषभदेवजीकी भिन्न-भिन्न देशों में विहार कर, अन्धे को आँख देनेकी तरह भव्य प्राणियोंको बोधिबीज समकित ) का दान कर अनुगृहीत कर रहे थे । केवल-ज्ञान प्राप्त हानेके बादसे प्रभुके परिवारमें चौरासी हज़ार साधु, तीन लाख साध्वियों, तीन लाख पचास हजार श्रावक, पाँच लाख चौवन हज़ार श्राविकाएँ चार हज़ार सात सौ पचास चौदह पूर्वी, नो हज़ार अवधि-ज्ञानी, बीस हज़ार केवलज्ञानी और छः सौ वैक्रिय लब्धिवाले, बारह हज़ार छः सौ मनःपर्यव ज्ञानो, इतने ही वादी और बाईस हज़ार अनुत्तर विमानवासी महात्मा हुए। उन्होंने व्यवहार में जैसे प्रजाका स्थापन किया था, वैसेही आदि-तीर्थङ्कर होनेपर उन्होंने धर्म-मागेमें चतुर्विध संघका स्थापन किया। दीक्षाके समयसे लेकर लक्ष पूर्व बीत जाने पर उन्होंने जाना, कि अब मेरा मोक्षकाल समोप आ गया है, तब महात्मा प्रभु झटपट अष्टापद पर्वत पर आ पधारे। पास पहुँचने पर प्रभु मोक्षरूपी महलकी सीढ़ियोंके समान उस पर्वत पर अपने परिवारके साथ चढ़ने लगे। तब प्रभुने वहाँ दस हजार मुनियों के साथ चतुर्दश तप (छः उपवास) करके पादपगमन अनशन किया।