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प्रथम पर्व
५४७ आदिनाथ-चरित्र देनेवाले और सिद्धि प्राप्तिके अर्थको सिद्ध करनेवालेमहावीर प्रभु ! मैं तुम्हारी वन्दना करता हूँ।"
इस प्रकार प्रत्येक तीर्थंकरकी स्तुति कर, प्रणाम करते हुए महाराज भरत उस सिंहनिषद्या-चैत्यसे बाहर निकले और प्यारे मित्रकी तरह पीछे मुड़-मुड़ कर तिरछी नज़रोंसे उसे देखते हुए अष्टापद-पर्वतसे नीचे उतरे। उनका मन उसी पर्वतमें अटका हुआ था, इसीलिए अयोध्याधिपति ऐसी मन्द-मन्द गतिसे अयोध्याकी ओर चले, मानों उनके वस्त्रका छोर वहीं अँटक रहा हो। शोककी बाढ़की तरह सैनिकोंकी उड़ायी हुई धूलसे दिशाओंको व्याकुल करते हुए शोकातं चक्रवत्तों अयोध्याके समीप आपहुँचे, मानो चक्रवतॊके सहोदर हों, इस प्रकार उनके दुःखसे अत्यन्त दुःखित नगर निवासियों द्वारा आँसू भरी आँखोंसे देखे जाते हुए महाराज अपनी विनीता नगरीमें आये। फिर भगवान्का स्मरणकर, वृष्टि के बाद बचे हुए मेघकी तरह अश्रु जलके बूंद बरसाते हुए वे अपने राजमहलके अन्दर आये। जिसका धन छिन जाता है, वह जिस प्रकार द्रव्यका ही ध्यान किया करता है, वैसेही प्रभुरूपी धनके छिन जानेसे वे भी उठते,-बैठते चलतेफिरते, सोते-जागते, बाहर-भीतर, रात-दिन प्रभुका ही ध्यान करने लगे। यदि कोई किसी और ही मतलबसे उनके पास अष्टापद-पर्वतकी ओरसे आ जाता, तो वे यही समझते, मानों वह भी पहलेहीकी भांति प्रभुका ही कोई संदेसा लेकर आया है।
महाराजको ऐसा शोकाकुल देखकर मन्त्रियोंने उनसे कहा-.