Book Title: Adinath Charitra
Author(s): Hemchandracharya, Pratapmuni
Publisher: Kashinath Jain Pt

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Page 599
________________ आदिनाथ चरित्र ५५२ प्रथम-पर्व भाँति शून्य प्रतीत होने लगा। बाजूबन्द निकालतेही दोनों हाथ अर्द्धलतापाशसे हीन दो शालके वृक्ष जैसे दिखने लगे। दोनों हाथोंके कड़े निकाल डाले, तब वे बिना कड़ी काठके प्रासाद से दिखायी देने लगे। और-और अंगुलियोंकी भी अंगूठियाँ उतार दी, तव वे मणि-रहित सर्पके फणके समान मालूम होने लगीं। परोंमेंसे पाद-कंटक दूर कर देने पर वे गजेन्द्र के सुवर्ण कंकण विहीन दाँतके समान दिखाई देने लगे। इस प्रकार सर्वाङ्गके आभूषणोंका त्याग करनेसे अपने शरीरको पत्र-रहित बृक्षके समान शोभाहीन होते देख, महाराजने एक बार सारे शरीरको देखकर कहा,—“आह ! इस शरीरको धिक्कार है। जैसे दीवार पर चित्र आदि अंकित कराकर बनावटी शोभा लायी जाती है, वैसेही इस शरीरकी भी गहनों आदिसे बनावटी शोभा की जाती है। अन्दर विष्ठादिक मलसे और बाहर मूत्रादिक प्रवाहसे मलिन इस शरीरमें यदि विचार कर देखा जाय, तो कोई वस्तु शोभाकारी नहीं है। खारी जमीन जैसे बरसातके पानीको भी बिगाड़ देती है, वैसेही यह शरीर अपने ऊपर विलेपन किये हुए कपूर और कस्तूरी आदिको भी दूषित कर देता है। जिन्होंने विषयोंसे विरक्त होकर मोक्षफलको देनेवाली तपस्या की है, उन्होंने ही इस शरीरका लाभ उठाया है।” इसी प्रकार विचार करते हुए, सम्यक् प्रकार से अपूर्वकरणके अनुक्रमणसे, क्षपक-श्रेणीमें आरूढ़ हो, शुक्ल ध्यानको पाये हुए महाराजको घाती कर्मोंके क्षय हो जानेके कारण वैसेही

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