Book Title: Adinath Charitra
Author(s): Hemchandracharya, Pratapmuni
Publisher: Kashinath Jain Pt

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Page 585
________________ आदिनाथ-चरित्र . ५३८ प्रथम पर्व के बीचमें और आसपास वज्रमय अङ्कश बने हुए थे, तथापि उनकी शोभा निरंकुश हो रही थी। उन अंकुशोंमें कुम्भके सदृश गोल और आँवलेके फलके समान स्थूल मुक्ताफलोंके बने हुए अमृतधाराके समान हार लटक रहे थे। उन हारों के प्रान्त-भाग में निर्मल मणि मालिकाएँ बनवायी गयी थीं। वे मणियाँ ऐसी मालूम होती थीं, मानो तीनों लोककी मणियोंकी खानोंसे बतौर नमूनेके लायी गयी हो । मणिमालिकाओंके प्रान्तभागमें रहनेवाली निर्मल वज्रमालिकाएं ऐसी मालूम होती थीं,मानों सखियाँ अपनी कान्ति-रूपिणी भुजाओंसे एक दूसरीको आलिङ्गन कर रही हों। उस चैत्यकी दीवारों में विचित्र मणिमय गवाक्ष (खिड़कियाँ ) बनवाये गये थे, जिनमें लगे हुए रत्नोंके प्रभा-पटलसे ऐसा मालूम होता था मानों उनपर परदे पड़े हुए हो। उसके अन्दर जलते हुए अगुरुधूपके धुएं से ऐसा प्रतीत होता था, मानों पर्वतके ऊपर नयी नील-चूलिकाएं पैदा हो आयी हों। ___ अब पूर्वोक्त मध्य देवच्छन्दके ऊपर शैलेशी-ध्यानमें मग्न, प्रत्येक प्रभुकी देहके बराबर मानवाली, उनकी देहके रंगकेही समान रंगवाली, ऋषभस्वामी आदि चौवीसों तीर्थङ्करोंकी निर्मल रत्नमय प्रतिमाएं बनवा कर उन्होंने रखवा दी, जो ठीक ऐसी मालूम होती थीं, मानों प्रत्येक प्रभु स्वयं ही वहाँ आकर विराज रहे हों। उनमें सोलह प्रतिमाएं सुवर्णकी, दो राजवर्त रत्नकी ( श्याम ) , दो स्फटिक रत्नकी ( उज्ज्वल ), दो वैडूर्य-मणिकी ( नील ) और दो शोणमणिकी ( लाल ) थीं। उन सब प्रतिमाओंके नख रोहिताक्ष

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