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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पर्व कुमारों को युद्धोत्सवके लिये रण-निमंत्रण दिया। रातके समय बाहुबलीने सब राजाओंकी सलाहसे अपने सिंह जैसे पराक्रमी सिंह रथ नामक पुत्रको सेनापति नियुक्त किया और पट्टहस्तोकी भाँति उनके मस्तकपर प्रकाशमान प्रतापके समान देदीप्यमान सुवर्णका एक रण-पट्ट आरोपित कर दिया। राजकुमार राजाको प्रणाम कर, उनसे रण-शिक्षा ले, ऐसे आनन्दसे अपने निवास स्थान पर आये, मानों उन्हें पृथ्वी ही मिल गयी हो। महाराज बाहुबलीने अन्यान्य राजाओंको भी युद्धके लिये आज्ञा देकर विदा किया। यद्यपि वे स्वयं रणकी इच्छा रखते थे, तथापि स्वामीकी इस आज्ञाको उन्होंने सम्मानके साथ सिर-आँखोंपर लिया।
इधर महाराज भरतने कुमारों, राजाओं और सामन्तोंकी रायसे श्रेष्ठ आचार्यकी तरह सुषेणको रणदीक्षा प्रदान की उन्हें सेनापति बनाया। सिद्धिमंत्रकी तरह स्वामीकी आज्ञा स्वीकार कर, चक्रवाककी भाँति प्रातःकाल होनेकी बाट जोहता हुआ सुषेण अपने डेरेपर आया। कुमारों, मुकुटधारी राजाओं और सब सामन्तोंको बुलाकर राजा भरतने आज्ञा दी,-"प्यारे शूर-वीरों! मेरे छोटे भाईके साथ युद्ध करते समय बिना भूले तुम लोग सुषेण सेनापतिको मेरेही समान जानना। हे पराक्रमी योद्धओं ! महावत जैसे हाथीको वशमें कर लेता है, वैसेही तुमने अपने अतुल पराक्रमले बड़े-बड़े अभिमानी राजाओंको वशमें कर लिया है
और वैताढ्यपर्वतको लाँधकर देवों तथा असुरोंको पराजित कर, तुमने दुर्जय किरातोंको भी अपने पराक्रमसे खूबही मसल डाला