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आदिनाथ चरित्र ४६४
प्रथम पर्व ऊँचा चैत्य-वृक्ष बनाया। उस चैत्य-वृक्षके नीचे अपनी किरणों से मानों वृक्षको मूलसे ही पल्लवित करता हुआ एक रत्नमय पीठ बनाया और उस पीठ पर चैत्य-वृक्षकी शाखाओंके पल्लवोंसे बारबार स्वच्छ होता हुआ एक रत्नच्छन्द बनाया । उसके मध्यमें पूर्वकी ओर विकसित कमलकी कलीके मध्यमें कर्णिकाकी तरह पादपीठ सहित एक रत्न-सिंहासन तैयार किया और उस पर गङ्गाकी तीन धाराओंके समान तीन छत्र बनाये। इस प्रकार वहाँ देवों और असुरोंने झटपट समवसरण बनाकर रख दिया, मानों वे पहलेसे ही सब कुछ तैयार रखे हुए हो अथवा कहींसे उठा लाये हों।
जगत्पतिने भव्य-जनोंके हृदयकी तरह मोक्षद्वार-रूपी इस समवसरणमें पूर्व दिशाके द्वारसे प्रवेश किया। पहुँचते ही उन्होंने उस अशोककी प्रदक्षिणा की, जिसके डालके अन्तमें निकलनेवाले पलवोंको उन्होंने कर्ण-भूषण बना रखा था। इसके बाद पूर्व दिशाकी ओर आ, “नमस्तीर्थाय" कह कर, जैसे राजहंस कमल पर आ बैठे, वैसेही वे भी सिंहासन पर आ विराजे । त. त्काल ही शेष तीनों दिशाओंके सिंहासनों पर व्यन्तर देवोंने भगवानके तीन रूप बना रखे। फिर साधु, साध्वी और वैमानिक देवताओंकी स्त्रियोंने पूर्व-द्वारसे प्रवेश कर, प्रदक्षिणा करके भक्तिपूर्वक जिनेश्वर और तीर्थको नमस्कार किया और प्रथम गढ़में प्रथम धर्म-रूपी उद्यानके वृक्षरूप साधु, पूर्व और दक्षिण दिशाके बीचमें बैठे। उसी प्रकार पृष्ठ-भागमें वैमानिक देवताओंकी स्त्रियाँ