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प्रथम पवे
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आदिनाथ-चरित्र पूछा,– “हे देव ! स्वर्गमें भी आप इसी रूपमें रहते हैं या किसी
और रूपमें ? क्योंकि देवता तो कामरूपी कहलाते हैं अर्थात् वे जब जैसा चाहें, वैसा रूप बना लेते हैं।" ___ इन्द्रने कहा,—"हे राजन् ! स्वर्ग में मेरा यह रूप नहीं रहता। वहाँ जो रूप रहता है, उसे कोई मनुष्य नहीं देख सकता।"
भरतने कहा,-" आपका वह रूप देखनेको मेरी बड़ी प्रबल इच्छा हो रही है। इसलिये हे स्वर्गेश्वर ! चन्द्रमा जैसे चकोरको आनन्द देता है, वैसेही आप भी मुझे अपनी वह दिव्यमूर्ति दिखला कर मेरी आँखोंको आनन्द दीजिये।"
इन्द्रने कहा,-- “हे राजन् ! तुम उत्तम पुरुष हो, इसलिये तुम्हारी प्रार्थना व्यर्थ नहीं जानी चाहिये, अतएव लो, मैं तुम्हें अपने एक अङ्गका दर्शन कराता हूँ।" यह कह, इन्द्रने उचित अलङ्कार से सोहती हुई और जगतरूपी मन्दिरमें दीपकके समान अपनी एक उँगली राजा भरतको दिखलायी, उसचमकती हुई कान्तिवाली इन्द्रकी उँगलीको देख, मेदिनीपतिको वैसाही आनन्द हुआ, जैसा चन्द्रमाको देखकर समुद्रको होता है। भरतराजाका इस प्रकार मान रखकर, भगवान्को प्रणामकर, इन्द्र सन्ध्या-कालके मेघकी भांति तत्काल अन्तर्ध्यान हो गये। चक्रवर्ती भी, स्वामीको प्रणाम कर, करने योग्य कामका मन-ही-मन विचार कर, अपनी अयोध्या-नगरीको लौट आये । रातको इन्द्रकी अंगुलीका आरोपण कर, उन्होंने वहाँ अष्टाहिका-उत्सव किया, सत्पुरुषोंका कर्तव्य भक्ति और स्नेहमें एकसाही होता है । उस दिनसे इन्द्रका