Book Title: Adinath Charitra
Author(s): Hemchandracharya, Pratapmuni
Publisher: Kashinath Jain Pt

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Page 566
________________ प्रथम पर्व आदिनाथ चरित्र मालूम पड़ता था, मानों विदेशमें लाकर खड़ा किया हुआ वैताढ्य पर्वत हो; अपने सुवर्णमय शिखरोंके कारण वह मेरु पर्वतसा दिखायी दे रहा था ; रत्नोंकी खानोंसे दूसरा रत्नाचल ही जान पड़ता था और औषधियों के समूहके कारण दूसरे स्थानमें आया हुआ हिमाद्रि-पर्वत ही प्रतीत होता था। नीचेको झुक आये हुए बादलोंके कारण वह वस्त्रोंसे शरीर ढके हुएके समान मालूम पड़ता था और उसपरसे जारी होनेवाले झरनेके सोते उसके कन्धे पर पड़े हुए दुपट्टोंकी तरह दिखाई देते थे। दिनके समय निकट आये हुए सूर्यसे वह मुकुट-मण्डित मालूम पड़ता था और रातको पास पहुँचे हुए चन्द्रमाके कारण वह माथेमें चन्दनका तिलक लगाये हुए मालूम होता था। आकाश तक पहुँचनेवाले उसके शिखर उसके अनेकानेक मस्तकसे जान पड़ते थे और ताड़के वृक्षोंसे वह अनेक भुजाओंवाला मालूम होता था। वहाँ नारियलोंके वनमें उनके पक जानेसे पीले पड़े हुए फलोंको अपने बच्चे समझकर बन्दरोंकी टोली दौड़-धूप करती दिखाई देती थी और आमके फलोंको तोड़ने में लगी हुई सौराष्ट्र-देशकी स्त्रियोंके मधुर गानको हरिण कान खड़ा करके सुना करते थे। उसकी ऊपरी भूमि शुलियोंके मिषसे मानों श्वेत केश हो गये हों, ऐसे केतकीके जीर्ण वृक्षोंसे भरी हुई रहती थी। हरएक स्थानमें चन्दन बृक्षकी रसकी तरह पाण्डुवर्णके बने हुए सिन्धुवारके बृक्षोंसे वह पर्वत ऐसा मालूम पड़ता था, मानों उसने अपने समस्त अंगों में माङ्गलिक तिलक कर रखे हों। वहाँ शाखामा

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