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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र
की है। अतएव संसारको असारताको जानते हुए ये लोग वमन किये हुए अनकी तरह त्याग किये हुए भोगको फिर नहीं ग्रहण कर सकते ।”
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जब प्रभुने इस प्रकार भोगसम्बन्धी उनके आमन्त्रणका निषेध किया, तब फिर पश्चात्ताप युक्त होकर चक्रवर्तीने विचार किया, - यदि मेरे ये सर्व-सङ्ग-विहीन भाई कदापि भोगका संग्रह नहीं कर सकते, तो भी प्राण धारणके लिये आहार तो करेंगे ही ? ऐसा विचारकर उन्होंने ५०० गाड़ियों में भरकर आहार मँगवाया और अपने छोटे भाइयोंसे फिर पहले की तरह उन्हें स्वीकार कर लेने को कहा। इसके उत्तर में प्रभुने कहा, "हे भरतपति ! यह आधाकर्मी* आहार यतियों के योग्य नहीं है ।"
प्रभुने जब इस प्रकार निषेध किया । तब उन्होंने अकृत और अकारित | अन्नके लिये उन्हें निमन्त्रण दिया ; क्योंकि सरलता में सब कुछ शोभा देता है। उस समय "हे राजेन्द्र ! मुनियाँको राजपिण्ड नहीं चाहिये ।" यह कह कर धर्म- चक्रवतीने फिर मना कर दिया। तब ऐसा विचारकर, कि प्रभुने तो मुझे सब प्रकार से निषेधही कर दिया, महाराज भरत पश्चात्तापके कारण राहुग्रस्तचन्द्रमा की भांति दुःखित होगये । उनको इसप्रकार उदास होते देखकर इन्द्रने प्रभुसे पूछा, "हे स्वामी ! अवग्रह | कितने तरहका होता है ?
* मुनियोंके लिये तैयार किया हुआ । + मुनिके लिये नहीं किया हुआ और नहीं कराया हुआ । * रहने और विचरनेके स्थानके लिये जो आज्ञा लेनी पड़ती है, उसे अवग्रह कहते हैं ।