Book Title: Adinath Charitra
Author(s): Hemchandracharya, Pratapmuni
Publisher: Kashinath Jain Pt

View full book text
Previous | Next

Page 549
________________ आदिनाथ चरित्र t स्तम्भ आरोपित कर लोग सर्वत्र इन्द्रोत्सव करने लगे रीति अब तक लोकमें प्रचलित है 1 सूर्य जैसे एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जाता है, वैसेही भव्य-जनरूपी कमलोंको प्रबुद्ध करनेके ( खिलानेके ) लिये भगवान् ऋषभस्वामी ने भी अष्टापद-पर्वतसे अन्यत्र विहार किया I 1 इधर अयोध्यामें भरत राजाने सब श्रावकों को बुलाकर कहा,"तुम लोग सदा भोजनके लिये मेरे घर आया करो और कृषि आदि कार्यों में न लग कर, स्वाध्याय में निरत रहते हुए निरन्तर अपूर्व ज्ञानको ग्रहण करनेमें तत्पर रहा करो भोजन करनेके बाद मेरे पास आकर प्रतिदिन तुम्हें यही कहना होगा, कि-जिनो भवान् वर्द्धते भीस्तस्मान् माहन माहन (अर्थात् तुम जीते गये हो.. भय वृद्धिको प्राप्त होता है, इसलिये 'आत्मगुण' को न मारो, न मारो ) ।” चक्रवर्तीकी यह बात मान, वे लोग सदा उनके घर आकर जीमने लगे और पूर्वोक्त वचनका स्वाध्यायमें तत्पर मनुष्य की भाँति पाठ करने लगे। देवताओंकी तरह रतिमें मग्न और प्रमादी चक्रवर्त्तीने उन शब्दों को सुनकर, अपने मनमें विचार किया,"अरे ! मैं किससे जीता गया हूं और किससे मेरा भय बढ़ता है ? हाँ, अब जाना । कषायोंने मुझे जीत लिया है और इन्हीं के करते भय वृद्धिको प्राप्त होता है । इसीलिये ये विवेकी पुरुष मुझे नित्य इस बातकी याद दिलाया करते हैं, कि आत्माकी हत्या न करोन करो, परन्तु तो भी मेरी यह कंसी प्रमादशीलता और विषयलुधता है । धर्मके विषय में मेरी यह कैसी उदासीनता है ! इस 1 ५०४ प्रथम पर्व यह

Loading...

Page Navigation
1 ... 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610