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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र
टुकड़े की तरह यही क्रीड़ा-पूर्वक इसे आकाशमें उड़ा दू ? बालक के नालकी तरह इसे लेकर पृथ्वीमें गाड़ दूँ ? चश्चल चिड़िया के बच्चे की तरह हाथसे पकड़ लूँ ? मारने योग्य अपराधीकी भाँति इसे दूरहीसे छोड़ दूं' ? अथवा चक्कीमें पड़े हुए किनकों की तरह इसके अधिष्ठाता हज़ारों यक्षोंको इस दण्ड से दल-मसल दूँ ? अच्छा, रहो, मैं इन कामोंको अभी न कर, पहले इसके पराक्रमकी परीक्षा तो लूँ । ” वह ऐसा सोचही रहे थे, कि उस चक्रने बाहुबली के पास आकर ठीक उसी तरह उनकी तीन बार प्रदक्षिणा की, जैसे शिष्य गुरुकी करता है । चक्रीका चक्र जब सामान्य सगोत्री पुरुष पर भी नहीं चल सकता, तब उनकेसे चरम- शरीरी पर कैसे अपना ज़ोर आज़माये ? इसीलिये जैसे पक्षी अपने घोंसलेमें चला आता है और घोड़ा अस्तबल में, वैसेही वह चक्र लौट आकर भरतेश्वरके हाथ के ऊपर बैठ रहा ।
" मारनेकी क्रियामें विषधारी सर्पके समान एकमात्र अमोघ - अत्र एक यही चक्र था । अब इसके लमान दूसरा कोई अस्त्र इनके पास नहीं है, इसलिये दण्डयुद्ध होते समय चक्र छोड़नेवाले इस अन्यायी भरत और इसके चक्रको मैं मारे मुष्टि-प्रहारके ही चूर्ण कर डालूँ,” ऐसा विचार कर, सुनन्दा- सुत बाहुबली क्रोध से भरकर यमराजकी तरह भयंकर घूँसा ताने हुए चक्रवर्ती पर लपके। सूँड़में मुद्गर लिये हुए हाथी की तरह घूँसा ताने हुए बाहुबली दौड़ कर भरतके पास आये ; पर जैसे समुद्र