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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र नासिका पर गड़ी हुई थीं। साथ ही वे महात्मा बिना हिले डले ऐसे शोभित हो रहे थे, मानों दिशाओंका साधन करने वाला शंकु * हो। अग्निकी लपटोंकी तरह गरम-गरम बालू चलानेवाली गरमीकी लूको वे वनके वृक्षोंकी भांति सह लेते थे। अग्नि-कुण्डके मध्याह्न-कालका सूर्य उनके सिर पर तपता रहता था, तो भी शुभ-ध्यान-रूपी अमृत-कुण्डमें निमग्न रहनेवाले उन महात्माको इस बातकी खवर ही नहीं होती थी। सिरसे लेकर पैरके अंगूठे तक धूलके साथ पसीना मिल जानेसे शरीर कीचड़ से लिपटा हुआ मालूम पड़ने लगता था। उस समय वे कीचड़ कादेसे निकले हुए वराहकी तरह शोभित होते थे। वर्षा ऋतुमें बड़े जोरकी आँधी और मूसलधार-बृष्टिसे भी वे महात्मा पर्वतकी तरह अचल बने रहते थे। अक्सर अपने निर्घातके शब्दसे पर्वतके शिखरोंको भी कंपाती हुई बिजली गिर पड़ती; तो भी वे कायोत्सर्ग अथवा ध्यानसे विचलित नहीं होते थे। नीचे बहते हुए पानोमें उत्पन्न सिवारोंसे उनके दोनों पैर निर्जन ग्रामकी बावली की सीढ़ियोंके समान लिप्त हो गये। हिम-तुमें हिमसे उत्पन्न होने वाली मनुष्यका नाश करनेवाली नदी जारी होने पर भी वे ध्यानरूपी अग्निमें कर्म-रूपी ईंधनको जलानेमें तत्पर रहते हुए बड़े सुखसे रहे। बर्फसे वृक्षको जलादेने वाली हेमन्त ऋतुकी रात्रियोंमें भी बाहुबलीका ध्यान कुन्दके फलोंकी तरह बढ़ाता ही जाता था। जंगली भैंसे मोटे वृक्षके स्कन्धके समान उनके ध्यान मग्न शरीर
ॐ घड़ीकी वह सुई जिससे दिशाओंका ज्ञान होता है। .