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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र कर खेल करता था; किन्नरोंकी स्त्रियाँ रतिके आरम्भसे ही उसकी गुफाओंको मन्दिर बना लेती और स्नान करनेके लिये आयी हुई अप्सराओंकी भीड़-भाड़के मारे उसके सरोवरका जल तरङ्गित होता रहता था। कहीं चौपड़ खेलते हुए, कहीं पान-गोष्ठी करते हुए, कहीं जुआ खेलते हुए यक्षोंसे उसके मध्यभागमें कोलाहल होता रहता था। उस पर्वत पर कहीं किन्नरों की स्त्रियां, कहीं भीलोंकी स्त्रियाँ और कहीं विद्याधरोंकी स्त्रियाँ क्रीड़ा करती हुई गीत गाया करती थीं। कहीं पके हुए दाखके फल खाकर उन्मत्त बने हुए शुक-पक्षी शब्द कर रहे थे, कहीं आमकी मोजरें खाकर मस्त कोयलें पंचम स्वरमें अलाप रही थीं, कहीं कमल-तन्तुके आस्वादसे उन्मत्त बने हुए हंस मधुर शब्द कर रहे थे, कहीं नदीके किनारे मदोन्मत्त क्रौञ्च-पक्षी किलकारियाँ सुना रहे थे, कहीं बिल्कुल पास आकर लटके हुए मेघोंको देखकर बेसुध हो जानेवाले मोर शोर कर रहे थे और कहीं सरोवरमें तैरते हुए सारस-पक्षियोंका शब्द सुनाई दे रहा था । इन सब बातोंसे वह पर्वत बड़ा ही मनोहर मालूम होता था। कहीं तो वह पर्वत अशोकके लाल लाल पत्तोंसे कुसुंबी वनवाला, कहीं ताल-तमाल और हिन्तालके वृक्षोंसे श्याम वस्त्रवाला, कहीं सुन्दर पुष्पवाले पलास-वृक्षोंसे पीले वस्त्रवाला, और कहीं मालती और मल्लिकाके समूहले श्वेत वस्त्रवाला मालूम पड़ता था। आठ योजन ऊँचा होनेके कारण वह आकाशः जैसा ऊँचा मालूम पड़ता था। ऐसे उस अष्टापद-पर्वतके