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आदिनाथ चरित्र ४६०
प्रथम पर्व बने हुए उसके स्फटिक मणिके तटको स्त्रियाँ नदीके . जलके समान देखती रहती थीं। उसके शिखरोंके अग्रभागमें विश्राम लेनेको बैठी हुई विद्याधरोंकी स्त्रियोंको वह पर्वत वैताढ्य और क्षुद्र हिमालयकी याद दिलाता था। वह ऐसा मालूम पड़ता था, मानों स्वर्ग-भूमिका अन्तरिक्षमें टिका हुआ दर्पण हो, दिग्वधुओंका अतुलनीय हास्य हो और ग्रह-नक्षत्रों के निर्माणके काममें आनेवाली मिट्टीका अक्षय आश्रय-स्थल हो। उसके शिखरों के मध्यभागमें दौड़-धूप करके थके हुए मृग बैठा करते थे, इससे वह अनेक मृगलाञ्छनों ( चन्द्रों ) का धोखा दे रहा था। उससे जो बहुतसे झरने जारी थे, वे उसके छोड़े हुए निर्मल वस्त्रसे मालूम पड़ते थे और सूर्यकान्त-मणियोंकी फैलती हुई किरणोंसे वह ऊँची-ऊँची पताकाओंवाला मालूम होता था। उसके ऊँचे शिखरके अग्रभागमें जब सूर्यका संक्रमण होता था, तब वह सिद्धोंकी स्त्रियोंको उदयाचलका भ्रम पैदा करता था। मानों मोरपंखोंका बना हुआ छत्र तना हो, इस प्रकार उसपर हरे-हरे पत्तोंवाले वृक्षोंकी छाया :निरन्तर छायी रहती थी। खेचरों की स्त्रियाँ कौतुकसे मृगोंके बच्चोंका लालन-पालन करती थीं, इससे हरिणियोंके झरते हुए दूधसे उनकी सब लता-कुजें सिंच जाती थीं। कदलीपत्रकी लंगोटियाँ पहने हुई शबरियोंका नाच देखनेके लिये वहाँ नगरकी स्त्रियाँ आँखोंकी पंक्ति लगाये रहती थीं। रतिसे थकी हुई साँपिने वहाँ जंगलकी मन्द-मन्द हवा पिया करती ; पवन-नटकी तरह लताओंको नचा-नचा