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आदिनाथ चरित्र ४८४
प्रथम पर्व इस विषयमें अपनी असमर्थता प्रकट कर देता था। इस प्रकार प्रतिबोध देने पर यदि कोई भव्यजीव दीक्षा लेना चाहता, तो वह उसको प्रभुके पास भेज देता था और उससे प्रतिबोध पाकर आये हुए भव्य-प्राणियोंका भगवान् ऋषभदेव, जो निष्कारण उपकार करनेमें बन्धुके समान हैं, स्वयं दीक्षा दिया करते थे।
इसी प्रकार प्रभु के साथ विहार करते हुए मरिचिके शरीरमें लकड़ीके घुनकी तरह एक बड़ा भारी रोग पैदा हो गया। डाल से चूके हुए बन्दरको तरह, व्रतसे चूके हुए उस मरिचिका उसक साथ वाले साधुओंने प्रतिपालन करना छोड़ दिया। जैसे ईख का खेत बिना रक्षकके सूअर आदि जानवरोंसे विशेष हानि उठाता है, वैसेही बिना दवा-दारूके मरीचिका रोग भी अधिकाधिक पीड़ा देने लगा। तब घने जङ्गलमें पड़े हुए निस्सहाय पुरुषकी भाँति घोर रोगमें पड़े हुए मरिचिने अपने मनमें विचार किया,-"अहा ! मालूम होता है, कि मेरे इसी जन्मका कोई अशुभ कर्म उदय हो आया है, जिससे अपनी जमातके साधु भी मेरी परायेके समान उपेक्षा कर रहे हैं ; परन्तु उल्लको दिनके समय दिखलाई नहीं देता, इसमें जिस प्रकार सूर्यके प्रकाशका कोई दोष नहीं है, उसी प्रकार मेरे विषयमें इन अप्रतिचारी सा. धुओंका भी कोई दोष नहीं। क्योंकि उत्तम कुलवाला जैसे म्लेच्छ की सेवा नहीं करता, वैसेही सावध कर्मोंसे विराम पाये हुए ये साधु मुझ सावध कर्म करनेवालेकी सेवा क्यों कैसे कर सकते है ? बल्कि उनसे अपनी सेवा करानी ही मेरे लिये अनुचित है :