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आदिनाथ-चरित्र
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प्रथम पवे
पित कर दिया। उसीके विश्वाससे अपनेको चक्रवत्ती मानते हुए चक्रवर्ती भरत, उसी प्रकार उस चक्रको आकाशमें घुमाने लगे, जैसे बवंडर कमलकी रजको आसमानमें नचाता है । ज्वालाओंके जालसे विकराल बना हुआ वह चक्र मानों आकाशमें ही पैदा हुई कालाग्नि, दूसरी वड़वाग्नि, अकस्मात उत्पन्न हुई व. जाग्नि, उन्नत उल्का-पुञ्ज, गिरता हुआ सूर्य-बिम्ब अथवा बिजली का गोलासा घूमता मालूम पड़ने लगा। अपने ऊपर छोड़नेके लिये उस चक्रको घुमानेवाले चक्रवतीको देखकर बाहुबलीने अपने मनमें विचार किया,- "अपनेको श्रीऋषभस्वामीका पुत्र माननेवाले भरत राजाको धिक्कार है- साथही इनके क्षत्रियव्रतको भी धिक्कार हैं ; क्योंकि मेरे हाथमें दण्ड होने पर भी इन्होंने चक्र धारण किया। देवताओंके सामने इन्होंने उत्तम युद्ध करनेकी प्रतिज्ञा की थी, पर अपनी इस काररवाईसे इन्होंने बालकोंकी तरह अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी। इसलिये इन्हें धिक्कार है। जैसे तपस्वी अपने तेजका भय दिखलाते हैं, वैसेही ये भी चक्र दिखलाकर सारी दुनियाकी तरह मुझे भी डरवाना चाहते हैं; पर जैसे इन्हें अपनी भुजाओंके बलकी थाह मिल गयी, वैसे ही इस चक्रका पराक्रम भी भली भाँति मालूम कर लेंगे। ” वे ऐसा सोचही रहे थे, कि राजा भरतने सारा जोर लगाकर उनपर चक्र छोड़ दिया। चक्रको अपने पास आते देख, तक्षशिालाधिपतिने सोचा,- “क्या मैं टूटे हुए बर्तनकी तरह इस चक्रको तोड़ डालू ? गेंदकी तरह इसे उछाल कर फेंक दूं ? पत्थरके