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प्रथम पर्व
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आदिनाथ - चरित्र
का जो, एक ही शरीर की दो भुजाओंके समान हैं, परस्पर संघर्ष क्यों हो रहा है ?” ऐसा बिचार कर उन्होंने दोनों ओर के सैनिकों को पुकार -पुकार कर कहा.- "देखो जब तक हम लोग दोनों ओरके मनस्वी स्वामियों को समझाते हैं, तब तक तुममेंसे भी कोई युद्ध न करे, ऐसी ऋषभदेवजी की आज्ञा है ।" देवताओंने जब इस प्रकार तीन लोकोंके स्वामीकी आज्ञा सुनायी, तब दोनों ओर के सैनिक चित्र-लिखे से चुप चाप खड़े हो गये और यही विचार करने लगे, किये देवता बाहुबलीके पक्ष में हैं या भरतराजके । काम भी बिगड़े और लोक कल्याण भी हो जाये, इसी विचार से देवतागण पहले चक्रवतोंके पास आये । वहाँ पहुचते ही 'जय जय' शब्दले आशीर्बाद करते हुए प्रियवादी देवताओंने मंत्रि योंके समान इस प्रकार युक्तिपूर्ण बातें कहनी आरम्भ की; "हे नरदेव ! इन्द्र जैसे दैत्योंको जीतते हैं, वैसे ही आपने छओं खण्ड़ भरत क्षेत्रके सब राजाओंको जीत लिया, यह बहुत ही अच्छा किया, हे राजेन्द्र ! पराक्रम और तेजके कारण सम्पूर्ण राजरूपी मृगोंमें आप शरभके तुल्य हैं- आपका प्रतिस्पर्द्धा कोई नहीं है । जलकुम्भका मथन करनेसे जैसे मक्खनकी साध नहीं मिटती, वैसे ही आपकी युद्धकी साध आजतक नहीं मिटी, इसलिये आपने अपने भाईके साथ लड़ाई छेड़ दी है; परन्तु आपका यह काम अपने ही हाथसे अपने दूसरे हाथको घायल करने के समान है जैसे 1 बड़ा हाथी बड़े वृक्षमें अपना गण्डस्थल घिसता है, उसका कारण उसकी खुजली है, वैसे ही भाईके साथ आपके