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प्रथम पर्व
४५५ . आदिनाथ-चरित्र आते हुए मनुष्यके हाथसे कोई रस्सी खींच ले। भला, भरतराजा जैसा दूसरा कौन शत्रु मिलेगा, जिसके साथ युद्ध करके हम अपने महाराजका ऋण चुकायेंगे? भाई-बन्दों, चोर और पिताके घर रहनेवाली पुत्रवती स्त्रीकी तरह हम लोगोंने तो व्यर्थ ही बाहुबलीका द्रव्य लिया और जङ्गली वृक्षोंके फूलकी सुगन्धकी तरह अपने बाहुदण्डोंका वीर्य भी व्यर्थ ही गया। नपुंसक पुरुषोंके द्वारा किये हुए स्त्री संग्रहके समान अपना यह शस्त्र संग्रह भी बिलकुल बेकार ही गया और तोतेको पढ़ाये हुए शास्त्राभ्यासकी तरह हमारा शस्त्राभ्यास भी व्यर्थ ही हुआ। तापसोंके पुत्रोंको मिला हुआ कामशास्त्रका परिज्ञान जैसे निष्फल होता है, वैसे ही अपनी यह सिपाहीगिरी भी बेकार ही गयी। मूोंकी तरह हमने जो हाथियोंको युद्ध में स्थिर रहनेका अभ्यास करवाया और घोड़ोंको श्रमजय करवाया, वह सब व्यर्थ ही होगया। शरद-ऋतुके मेघोंकी तरह हमारी सारी गरज-ठनक निकम्मी निकली और हमने महर्षियोंकी तरह व्यर्थ ही विकट कटाक्ष किये। सामग्री देखनेवालों की तरह अपनी तैयारियाँ व्यर्थ हो गयीं और युद्ध की लालसा नहीं मिटनेसे अपनी सारी हैंकड़ी किरकिरी हो गयी। - इसी प्रकारके विचारों में डूबे हुए वे लोग खेदरूपी विषसे गर्भित हो, फुफकार छोड़नेवाले साँपकी तरह लम्बी सांसें लेते हुए पोछेको लौटे। क्षात्रव्रत रूपी धनसे धनवान भरत राजाने भी अपनी सेनाको उसी तरह पीछे लौटाया, जैसे समुद्र भाठेको पीछे लौटाता है। पराक्रमी चक्रवर्तीके द्वारा लौटाये हुए