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आदिनाथ चरित्र
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नेसे मैंने न तो आपको जीता है और न मैं विजयी हूँ। अपनी इस विजयको मैं घुणाक्षर न्यायके समान जानता हूँ । हे भुवनेश्वर ! अभी तक इस पृथ्वीमें आप ही एक मात्र वीर हैं; क्योंकि देवताओंके द्वारा मथन किये जाने पर भी समुद्र-समुद्र ही कहलाता है । वह कुछ बावली नहीं हो जाता । हे षट्खण्डभरतपति ! छलाँग मारते समय गिर पड़ने वाले व्याघ्रकी तरह आप चुपचाप खड़े क्यों हो रहे हैं ? झटपट युद्ध के लिये तैयार हूजिये ।"
थम पव
भरतने कहा, – “यह मेरा भुजदण्ड घूँ सेके द्वारा अपना कलङ्क दूर करेगा ।" यह कह कर फणीश्वर जैसे अपना फन ऊपरको उठाता है, वैसेही घूँसा तानकर क्रोधसे लाल लाल नेत्र किये हुए चक्रवर्त्ती तत्काल दौड़े हुये बाहुबलीके सामने आये और हाथी जैसे किवाड़में अपने दाँतका प्रहार करता है, वैसेही वह घूँसा बाहुबलीकी छाती पर मारा । असत्पात्रको किया हुआ दान, बहरेके कानमें किया हुआ जाप, चुगलखोरका सत्कार, खारी जमीन पर बरसने वाली वृष्टि, और बरफके ढेर में पड़ी हुई अग्नि जैसे व्यर्थ हो जाती है; उसी प्रकार बाहुबलीकी छातोमें मारा हुआ घूँसा भी बेकार ही हुआ । इसके बाद इसी आशंकासे, कि कहीं मेरे ऊपर क्रोध तो नहीं किया ? देवताओंसे देखे जाने वाले सुनन्दा-सुनने घूँसा ताने हुए भरत राजाके सामने आकर उनकी छातीमें वैसे ही घूंसा मारा, जैसे महावत अङ्कुशसे हाथी के कुम्भस्थल पर प्रहार करता है। उस प्रहारको न सहकर विहल