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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र आया करते हैं, वे धन्य हैं। जाड़ेसे ठिठरे हुए लोग जैसे सूर्यकी शरणमें आते हैं, वैसेही इस संसारके विकट दुःखोंसे पीड़ित विवेकी व्यक्ति नित्य आपकी ही शरणमें आते हैं। है भगवन् ! जो लोग निर्निमेष नेत्रोंसे देखते हैं, उनको परलोकमें देवत्व दुर्लभ नहीं है। हे देव ! जैसे रेशमी कपड़े पर लगा हुआ अंजनका दाग़ दूधसे धोनेपर मिट जाता है. वैसही पुरुषोंका कर्मरूपी मैल आपकी देशनारूपी जलसे धुल जाता है। हे स्वामी ! जो निरन्तर आपका ऋषभनाथ यह नाम जपा करता है, उस जापकको सब सिद्धियोंका आकर्षण -मन्त्र सिद्ध सा हो जाता है। हे प्रभु ! जो आपकी भक्ति रूपी कवचको धारण कर लेता है, उस पर वज्र या त्रिशूलका असर नहीं होता।"
इस प्रकार भगवान्की स्तुति कर जिनके सारे शरीरके रोंगटे खड़े हो गये हैं, ऐसे वे नृप-शिरोमणि बाहुबली, प्रभुको प्रणाम कर, देवालयसे बाहर निकले। ___ इसके बाद उन्होंने विजयलक्ष्मोके विवाहके लिये बनी हुई काँचलीके समान सुवर्णमाणिक्य-मण्डित वन-कवच धारण कर लिया। जैस बहुतसे प्रबालोंके समूहसे समुद्र शोभा पाता है, वैसेही वे देदीप्यमान कवच पहननेसे सुशोभित दीखने लगे। तदनन्तर उन्होंने पर्वतकी चोटीपर सोहनेवाले मेघमण्डपकी तरह सिरपर शिरस्त्राण धारण कर लिया। बहुतसे सोसे भरे हुए पाताल-विवरके समान, लोहके बाणोंसे भरे हुए दो तरकस उन्हों ने पीठपर बाँध लिये और युगान्तके समय यमराजके उठाये हुए