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आदिनाथ-चरित्र ४१०
प्रथम पवे आज्ञावाले सब राजाओ से सेवित आर्य भरतके दिन सुखसे व्यतीत होते हैं न ?”
इस प्रकार प्रश्न कर ऋषभात्मज बाहुबली चुप हो रहे। तब आवेग-रहित होकर हाथ जोड़े हुए सुवेगने कहा,-"सारी पृथ्वीकी कुशल करनेवाले भरतराजकी अपनी कुशल तो स्वतः सिद्ध ही है। भला जिनकी रक्षा करनेवाले आपके बड़े भाई हों, उन नगर, सेनापति, हस्ती और अश्वों की बुराई करनेको तो दैव भी समर्थ नहीं है। भला भरतराजासे बढ़कर या उनके मुकाबलेका, ऐसा दूसरा कौन है, जो उनके छओं खण्डों पर विजय प्राप्त करनेमें विघ्न डालता ? सब राजा लोग उनकी आज्ञाको मानते हुए उनकी सेवा करते हैं तथापि महाराज भरतपति किसी तरह अपने मनमें हर्षका अनुभव नहीं करते ; क्योंकि कोई दरिद्र भले ही हो ; पर यदि उसके अपने कुटुम्बके लोग उसकी सेवा करते हों, तो वह निश्चय ही ऐश्वर्यवान् है। और यदि भारी ऐश्वर्यशाली ही हो ; किन्तु उसके कुटुम्बी उसकी सेवा न करते हों, तो उसे उस ऐश्वर्यसे सुख थोड़े ही होता है ? साठ हज़ार वर्षों के अन्तमें आये हुए आपके बड़े भाई अपने सब छोटे भाइयोंके आनेकी राह बड़ी उत्कण्ठाके साथ देख रहे थे। सब सम्बन्धी और मित्रादिक वहाँ आये और उन्होंने महाराजका अभिषेक किया। उस समय सब देवताओंके साथ इन्द्र भी आये हुए थे, तथापि अपने छोटे भाइयोंको न देख कर महाराजको हर्ष नहीं हुआ। बारह वर्ष तक महाराजका अभिषेक चलता रहा। इस