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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र निर्भय हूँ। गुरुजनमें विनय-भक्ति रखना प्रशंसनीय है, इसमें । सन्देह नहीं ; पर वह गुरु भी दरअसल गुरु ( श्रेष्ठगुणयुक्त). हो; पर गुरुके गुणोंसे रहित गुरुजनमें विनय-भक्ति रखना उलटा लजा-जनक है। गर्वयुक्त, कार्याकार्यके नहीं जाननेवाले
और बुरी राह पर चलनेवाले गुरुजनोंका त्याग ही करना उचित है। मैंने क्या उनके हाथी-घोड़े छीन लिये हैं या उनके नगर आदिको ध्वंस कर डाला है, जो तू कहता है, कि वे मेरे अविनय को अपने सर्वंसह स्वभावके कारण सहन कर रहे हैं ? दुर्जनोंके प्रतिकारके लिये भी मैं वैसे कार्यों में प्रवृत्त नहीं होता ; फिर बिचार कर कार्य करने वाले सत्पुरुषोंको क्या दुष्टोंके कहनेसे ही दूषण लग जायेगा ? अभी तक मैं उनके पास नहीं आया, इस बातसे उदास होकर क्या वह कहीं चले गये हैं, जो मैं उनके पास जाऊँ ? भूतकी तरह बहाना ढूंढ़नेवाले भरतपति, सर्वत्र अप्रमत्त और अलुब्ध रहनेवाले मुझमें कौनसा दोष ढूंढ निकालेंगे ? उनका कोई देश या दूसरी कोई वस्तु मैंने नहीं ली, फिर वे मेरे खामी कैसे हुए ? हमारे और उनके स्वामी तो
ऋषभस्वामी हैं ; फिर वे मेरे स्वामी किस तरह हुए ? मैं तो स्वयं तेजकी मूर्ति हूँ, फिर मेरे वहाँ पहुँचने पर उनका तेज कैसे रहेगा ? कारण, सूर्यका उदय होने पर अग्निका तेज मन्द हो जाता है। जो राजा स्वयं स्वामी होते हुए भी उन्हें स्वामी मानकर उनकी सेवा करते हैं, वे असमर्थ हैं ; तभी तो वे उन दरिद्र राजाओं पर निग्रह और अनुग्रह करनेको समर्थ हैं।