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प्रथम पर्व
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आदिनाथ चरित्र
फीके और कृश हो गये थे । सुन्दरीकी यह बदली हुई सूरत देख कर महाराजने क्रोधके साथ अपने अधिकारियोंसे कहा,“ऐ ! यह क्या ? क्या मेरे घर में अच्छा अनाज नहीं है ? लवणसमुद्र में लवण नहीं रह गया ? सब रसोंके जानने वाले रसोइये नहीं हैं ? अथवा तुम लोग निरादर-युक्त और कामके चोर हो गये हो ? क्या दाख और खजूर आदि खाने लायक मेवे अपने यहां नहीं हैं ? सुवर्ण- पर्वतमें सुवर्ण नहीं रह गया ? बाग़ीचोंक वृक्ष क्या अब फल नहीं देते ? क्या नन्दन वनके वृक्ष भी अब नहीं फलते ? घड़े के समान थनोंवाली गायें क्या अब दूध नहीं देतीं ? क्या कामधेनुके स्तनोंका प्रवाह भी सूख गया ? अथवा इन सब खाने योग्य उत्तमोत्तम पदार्थों के रहते हुए भी सुन्दरी किसी रोग से पीड़ित होनेके कारण खाती ही नहीं है ? यदि इस के शरीर में ऐसा कोई रोग हो गया है, जो कायाके सौन्दर्य का नाश करने वाला है, तो क्या हमारे यहाँके सब वैद्य मर गये हैं ? यदि अपने घर में दिव्य औषधि नहीं रही, तो क्या आजकल हिमाद्रि पर्वत भी औषधि-रहित हो गया है ? अधिकारियों ! मैं इस दरिद्रीकी पुत्रीकी तरह दुबल बनी हुई सुन्दरीको देख कर बहुत ही दुःखित हुआ । तुम लोगोंने मुझे शत्रुकी तरह धोखा दिया ।"
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भरत - पति को इस प्रकार क्रोधसे बोलते देख, अधिकारियोंने प्रणाम कर कहा, – “महाराज ! स्वर्ग - पतिकी तरह आपके घरमें सब कुछ मौजूद है ! परन्तु जबसे आप दिग्विजय करने चले