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प्रथम पर्व
३६५ , आदिनाथ-चरित्र सुन्दरीकी यह बात सुन कर प्रभुने “ हे महासत्वे! तू धन्य है, " ऐसा कह सामायिक सूत्रोच्चार-पूर्वक उसे दीक्षा दी। इसके बाद उन्होंने उसे महाव्रत रूपी वृक्षोंके उद्यानमें अमृत की नहरके समान शिक्षा मय देशना सुनाई, जिसे सुनकर वह महामना साध्वी अपने मनमें ऐसा मान कर मानों उसे मोक्ष प्राप्त ही होगया हो, बड़ी बड़ी साध्वियोंके पीछे अन्य ब्रतिनी-गण के बीचमें जा बैठी। प्रभुकी देशना सन, उनके चरण-कमलोंमें प्रणाम कर, महाराज भरतपति हर्षित होते हुए अयोध्या-नगरी में चले आये।
वहाँ आते ही अधिकारियोंने अपने सब सजनोंको देखने की इच्छा रखने वाले महाराजको उन लोगोंको दिखला दिया, जो आये हुए थे और जो लोग नहीं आये थे उनकी याद दिला दी। तब महाराज भरतने उन भाइयोंको बुलानेके लिये अलग-अलग दूत भेजे, जो अभिषेक-उत्सव में नहीं आये हुए थे। दूतोंने उनसे जाकर कहा,-"यदि आप लोग राज्य करनेकी इच्छो करते हैं, तो महाराज भरतकी सेवा कीजिये।” दूतोंकी बात सन, उन लोगोंने विचार कर कहा.-"पिताने भरत और सब भाइयों के बीच राज्यका बँटवारा कर दिया था। फिर यदि हम उसकी सेवा करें तो, वह हमें अधिक क्या दे देगा ? क्या वह सिर पर आयी हुई मृत्युको टाल सकेगा ? क्या वह देहको जजर करने वाली जरा-राक्षसीको दबा सकता है ? क्या वह पीड़ा देने
ॐ तिनी-गण-साध्वियोंका समूह ।