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आदिनाथ चरित्र
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प्रथम पर्व
आपकी स्तुति करते हैं, वे आवागमन के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं; फिर जो आपकी सेवा और ध्यान करते हैं, उनका तो कहना ही क्या है ?"
इस प्रकार भगवान्की स्तुति करनेके बाद नमस्कार कर, भरतेश्वर ईशान कोणमें योग्य स्थान पर जा बैठे । तदनन्तर सुन्दरी, भगवान् वृषभध्वजको प्रणाम कर, हाथ जोड़े, गद्गद वचनोंसे बोली, – “हे जगत्पति ! इतने दिनों तक मैं मन-ही-मन आपका ध्यान कर रही थी; पर आज बड़े पुण्योंके प्रभाव से मेरा ऐसा भाग्योदय हुआ, कि मैं आपको प्रत्यक्ष देख रही हूँ । इस मृगतृष्णाके समान झूठे सुखोंसे भरे हुए संसार रूपी मरुदेशमें आप अमृतकी झीलोंके समान हम लोगोंके पुण्यसे ही प्राप्त हुए हैं । हें जगन्नाथ ! आप मर्मरहित हैं, तो भी आप जगत पर वात्सल्य रखते हैं, नहीं तो इस विषम दुःखके समुद्रसे उसका उद्धार क्यों करते हो ? हे प्रभु ! मेरी बहन ब्राह्मी, मेरे भतीजे और उनके पुत्र – ये सब आपके मागेका अनुसरण कर कृतार्थ हो चुके हैं। भरतके आग्रह से ही मैंने आज तक व्रत नहीं ग्रहण किया, इसलिये मैं स्वयं ठगी गयी हूँ । हे विश्वतारक ! अब आप मुझ दीनाको तारिये । सारे घरको प्रकाश करने वाला दीपक क्या घड़ेको प्रकाश नहीं करता ? अवश्य करता है ।
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इसलिये हे विश्व-रक्षा करनेमें प्रीति रखने वाले ! आप मेरे ऊपर प्रसन्न हों और मुझे संसार-समुद्रसे पार उतारने वाली नौकाके समान दीक्षा दीजिये ।