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आदिनाथ चरित्र
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- प्रथम पर्व राह-वाटमें केशरके जलसे छिड़काव करने लगे। मानों निधियाँ अनेक रूपसे आगे हो आगई हों, इस तरह मंच सोनेके खम्भोंसे बनवाने लगे। उत्तर कुरु देशमें पांच नदियोंके दोनों ओर रहने वाले दश दश सुवर्णगिरि शोभते हैं, इसी तरह राहकी दोनों ओर आमने-सामनेके मंच शोभने लगे। प्रत्येक मंचमें बाँधे हुए रत्नमय तोरण इन्द्रधनुषकी श्रेणीकी शोभाका पराभव करने लगे
और गन्धोंकी सेना विमानोंमें बैठती हों, इस तरह गानेवाली स्त्रियाँ मृदंग और बीण बजानेवाले गन्धवों के साथ, उन मंचों पर बैठने लगीं। उन मंचोंके ऊपरके चन्दवोंके साथ बँधी हुई मोतियोंकी झालरें, लक्ष्मीके निवास गृहकी तरह कान्तिसे दिशाओंको प्रकाशित करने लगीं। मानो प्रमोदको प्राप्त हुई नगरदेवीका हास्य हो इस तरह चैवरोंसे, स्वर्गमण्डनकी रचना के चित्रोंसे, कौतुकसे आये हुए नक्षत्र-तारे हों ऐसे दर्पणोंसे, खेचरोंके हाथोंके रूमाल हों ऐसे वस्त्रोंसे और लक्ष्मीकी मेखला विचित्र मणिमालाओंसे नगरके लोग ऊँचे किये हुए खम्भोंमें हारकी शोभा करने लगे। लोगों द्वारा बाँधी हुई धुंघरुओं वालों पताकायें, सारस पक्षीके मधुर शब्द वाले शरद् ऋतुके समय को बताने लगी। व्यापारी लोग हरेक दूकान और मन्दिरोंको यक्ष कर्दमके गोबरसे लीपने लगे और उनके आँगनोंमें मोतियों के साथिये पूरने लगे। जगह-जगह अगरके चूर्णकी धूपका धूआँ ऊँचा उठ रहा था, इससे ऐसा जान पड़ता था, गोया स्वर्गको भी धूपित करनेकी इच्छा करते हैं।