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आदिनाथ- चरित्र
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प्रथम पर्व
गंगा देवीकी साधना करके उसके यहाँ रहना ।
वहाँ से चक्ररत्नके पीछे चलने वाले तीव्र तेजस्वी भरत महाराज गङ्गा- तट के ऊपर आये । गंगा-तटके पासही महाराजने अपनी सेना सहित पड़ाव किया। महाराजाकी आज्ञासे सुषेण सेनापतिने सिन्ध की तरह, गङ्गोत्तरी के उत्तर निष्कुट को अपने अधीन किया । फिर चक्रवर्त्तीने अष्टम भक्तले गङ्गा देवीकी साधना की । समर्थ पुरुषोंका उपचार तत्काल सिद्धिके लिये होता है। गंगा देवीने प्रसन्न होकर महाराजको दो रत्नमय सिंहासन और एक हजार आठ रत्नमय कुम्भ - घड़े दिये । गङ्गादेवी, रूप और लावण्यसे कामदेवको भी किंकर तुल्य करने वाले महाराजको देखकर क्षोभको प्राप्त हुई; अर्थात् वह महाराजका कामदेवको शर्माने वाला रूप लावण्य देखकर उन पर आशिक हो गई । गङ्गादेवीने मुखचन्द्रको अनुसरण करने वाले मनोहर तारागण जैसे मोतियोंके गहने सारे शरीर में पहने थे I केलेके अन्दरकी त्वचा या गाभे जैसे वस्त्र उन्होंने शरीर में पहने थे । जो उसके प्रवाह जलके परिणामको पहुँचे जान पड़ते थे । रोमाञ्च रूपी कंचुकि या आँगीले उसकी स्तनोंके ऊपरकी कंचुकि तड़ातड़ फटती थी और स्वयम्वरकी मालाकी तरह वे अपनी धवल दृष्टि महाराज पर फेंकती थीं। इस दशाको प्राप्त हुई गङ्गादेवीने कीड़ा करने की इच्छासे प्रेमपूग्ति गद्गद् वाणीसे महाराज भरतकी बहुत कुछ खुशामद और प्रार्थना की और उन्हें
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