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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र
हाथों से उसका आलिङ्गन किया हो, ऐसा दीखता था। उसके ऊपर सोने के घुघरुओं की मालायें मधुर स्वर से छम-छम करती थीं, इसलिये मानो भौंरोंके मधुर स्वर वाली कमलों की मालाओं से चञ्चित किया हुआसा वहदीखता था । पाँच रंगकी मणियों से, मिश्र सुवर्णालङ्कार की किरणों से अद्वैत रूप की पताकाके चिह्न से अंकित हुआ सा उसका मुख था। मङ्गल ग्रह से अंकित, आकाश के समान सोनेके कमल का उसका तिलक था और धारणा किये हुए चमरों के आभूषणों से-मानो उसके दूसरा कान हो ऐसा दीखता था। चक्रवर्ती के पुण्य से प्राप्त हुए इन्द्र के उच्चैःश्रवा की तरह वह शोभायमान था। टेढ़े पांव रखनेसे उसके पाँव लीला से पड़ते से दीखते थे। दूसरी मूर्तिसे मानो गरूड़ हो: अथवा मूर्तिमान पवन हो, ऐसा वह एक क्षणमें सौ योजन अथवा आठ सौ मील उलाँघ जानेका पराक्रम दिखलाता था। कीचड़, जल, पत्थर, कंकड़ और खड्डोंसे विषम वन जंगल और पर्वत गुहा आदि दुर्गम स्थानोंको पार करने में वह समर्थ था। चलते समय उसके पाँव जमीन को ज़रा ज़रा ही छूते थे । वह बुद्धिमान और नर्म था। पाँच प्रकारकी गतिसे उसने श्रम या थकानको जीत लिया था। कमलके जैसी उसके श्वासकी सुगन्ध थी। ऐसे घोड़े पर बैठ कर सेनापतिने यमराजकी तरह. मानो शत्रुओंका पन्ना हो ऐमा खगरत ग्रहण किया। वह खङ्ग पचास अंगुल लम्बा, सोलह अंगुल चौड़ा और आधा अंगुल मोटा था और सोने तथा रत्नोंका उसका म्यान था। उसने