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आदिनाथ-चरित्र ३२६
प्रथम पव यानी ऐसा जान पड़ता था गोया मौत मुँह खोलकर अपनी चञ्चल जीभ लपलपा रही हो । उस धनुष के घेरे में से दीखने वाले लोकपाल महाराज भरत, मण्डल में रहने वाले सूर्य की तरह, महा भय. ङ्कर मालूम होते थे। 'उस समय यह राजा मुझे स्थान से चलाय मान करेगा; अथवा मेरा निग्रह करेगा' ऐसा समझ कर लवण ससमुद्र क्षुभित होने लगा। फिर पृथ्वी पतिने बाहर, बीचमें, मुख में और पंख पर नाग कुमार, असुर कुमार और सुवर्ण कुमारादिक देवताओं से अधिष्ठित किये हुए दूतकी तरह आज्ञाकारी और शिक्षाअक्षर से भयङ्कर उस बाण को मागध तीर्थके अधिपति पर छोड़ा। उत्कट पड्डोंके सन सनाहट से साकाशको गुनाता हुआ वह बाण तत्काल गरूड़ के जैसे वेगसे चला। मेघसे जिस तरह बिजली, आकाश से जिस तरह उल्काग्नि, अग्नि से जिस तरह तिनक, तपस्वीसे जिस तरह तेजोलेश्या, सूर्यकान्त मणि से जिस तरह अग्नि और इन्द्र की भुजासे छुटकर जिस तरह वज्र शोभा पाता। उसी तरह राजाके धनुषसे निकला हुआ वह बाण शोभा पाने लगा, क्षण भरमें बारह योजन—४८ कोस उलाँघ कर वह बाण, हृदयके भीतर शल्य के समान, मागधपति की सभा में जा गिरा। जिस तरह लाठी या दण्डे की चोट लगने से सर्प क्रुद्ध होता है, उसी तरह बाण के गिरने से मागधपति क्रुद्ध हुआ। भयङ्कर धनुष की तरह उसकी दोनों भौऐं चढकर गोल होगई, जलती हुई आग की समान उसके नेत्र लाल होगये। धोंकनी की तरह उसकी नाक फूलने लगी, ओर तक्षक सर्पका छोटा भाई हो, इस तरह वह