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प्रथम पर्व
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आदिनाथ-चरित्र
प्रभो ! आपकी जय हो ! मैं आपका सेवक हूँ । मुझे जो आज्ञा देनी हो सो दीजिये। मैं आपकी आज्ञापालन या हुक्म की तामील करने के लिए तैयार हूँ ।' यह कहकर बड़ा भारी खजाना खोल दिया हो, इस तरह मूल्यवान - कीमती कीमती रत्न, रत्न और जवाहिरों के गहने - ज़ेवर दिव्य वस्त्र - सुन्दर सुन्दर कपड़े और प्रताप सम्पत्तिका क्रोड़ा स्थान जैसा भद्रासन उसने महाराज को भेंट किया । पृथ्वीपतिने उसकी दी हुई सारी चीजें लेली; क्योंकि निर्लोभ स्वामी भी सेवकों पर अनुग्रह करने के लिये उनकी भेंट स्वीकार कर लेते हैं। इसके बाद महाराज ने उसे इज्जत के साथ बुलाकर, गोरव के साथ विदा किया। महा पुरुष अपने आश्रय में रहे हुए साधारण पुरुषों की भी अवज्ञा नहीं करते । अष्टम भक्त का पारणा करके, वहीं वैताल देव का अष्टान्हिका उत्सव किया ।
वहाँ से चक्ररत तमिस्रा गुहा की तरफ चला । राजा भी पदन्वेषो या खोजों के पीछे पीछे चलनेवाले की तरह चक्र के पीछे पीछे चले । अनुक्रम से, तमिस्रा के निकट, मानो विद्याधरों के नगर वैनाढ्य पर्वत से नीचे उतरते हों इस तरह अपनी सेनाका पड़ाव कराया । उस गुफा के स्वामी कृतमालदेवको मन में याद करके, उन्होंने अष्टम तप किया । इस से देवका आसन चलाय मान हुआ । अवधिज्ञान से चक्रवर्ति को आया हुआ समझ बहुत दिनोंके बाद आये हुए गुरु की तरह, चक्रवर्ती रूपी अतिथि की पूजा-अर्चना करनेके लिये वह वहाँ आया और कहने लगा