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आदिनाथ - चरित्र
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प्रथम पर्व
उनके सामने आई। देवीने आकाशमें ठहरकर "जय जयं" कहते हुए आशीर्वाद पूर्वक कहा - "हे चक्रवत्तीं ! मैं यहाँ आपकी टहलुवी होकर रहती हूँ आप आशा दें वही काम करूँ ।" यह कहकर लक्ष्मीदेवी के सर्वस्व और निधान की सन्तति जैसे रत्नोंसे भरे हुए १००८ कुम्भ या घड़े, कीर्त्ति और जय लक्ष्मीके एक साथ बैठनेको बने हों ऐसे रत्नमय दो भद्रासन, शेष नागके मस्तक पर रहने वाली मणियोंसे बने हों ऐसे प्रदीप्त रत्नमय बाहुरक्षक - बाज़ूवन्द, बीच में सूर्यविम्बका कान्ति रक्खी हो ऐसे कड़े, और मुट्ठ में समा जाने वाले सुकोमल - नर्मानर्म दिव्यवस्त्र उसने चक्रवर्तीको भेंट किये । सिन्धुराजकी तरह उन्होंने वे सब चीजें स्वीकार कर लीं । और मधुर आलाप - मीठी मीठी बातोंमे देवीको प्रसन्न करके उन्होंने उसे बिदा किया। पीछे पूर्णमासीके चन्द्रमा जैसे सुवर्णकेपात्र में अष्टमभक्त का पारणा क्रिया और देवीका अष्टान्हिका उत्सव करके चक्रकी बताई हुई राहसे आगे चले 1
उत्तर -- पूर्व दिशा के मध्य - ईशानकोण – की तरफ चलते हुए, अनुक्रमसे दोनों भरतार्द्धके बीचों-बीचमें सीमा रूप से स्थित, वैताढ्य पर्वतके पास आये । उस पतके दक्खन भागके ऊपर मानो कोई लम्बा चौड़ा द्वीप हो, ऐसा पड़ाव महाराजने डाला । वहीं ठहरकर महाराजने अष्टम तप किया, इतनेमें हो वंताढ्या दि कुमार का आसन काँपा । उसने अवधि ज्ञानसे जान लिया कि; भरत क्षेत्रमें यह पहला चक्रवर्त्ती हुआ है। इसके बाद उसने चक्रवर्त्ती के पास आकर, आकाशमें ही ठहर कर कहा - "हे