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प्रथम पर्व
आदिनाथ-चरित्र है : उसी तरह पति में अचला भक्ति रखनेवाली श्रीमती अपने पति के साथ हो ली। आधी राह तय करने पर, अमावस्या की अँधेरी रात में चांदनी का भ्रम कराने वाला, एक घना सरकण्डोंका बन उन्हें मिला। राहगीरों के यह कहने पर, कि इस वनमें दृष्टिविष सर्प रहता है, उन्होंने उस राह को छोड़कर दूसरी राह पकड़ी; अर्थात् वे दूसरे मार्ग से चले ; क्योंकि नीतिज्ञ पुरुष प्रस्तुत अर्थ में ही तत्पर होते हैं। पुण्डरीक की उपमा वाले राजा वज्रजंघ पुण्डरीकिणी नगरी में आये। उनके बल और साहाय्य से पुष्करपाल ने सारे सामत्त अपने आधीन कर लिये। विधि के जानने वाले पुष्करपाल ने, गुरुकी तरह, राजा वज्रजंघ का खूब सत्कार किया। वज्रजंघ और श्रीमती की वापसी।
वज्रजंघ को वैराग्य ।
पुत्रद्वारा मारा जाना। दूसरे दिन श्रीमती के भाई की आज्ञा लेकर, लक्ष्मी के साथ जिस तरह लक्ष्मीपति चलते हैं; उसी तरह वज्रजंघ राजा श्रीमती के साथ वहाँ से चला। वह शत्रु नाशन राजा जब सरकंडों के वन के निकट आया, तब मार्ग के कुशल पुरुषों ने उस से कहा,'अभी इस वन में दो मुनियोंको केवल-ज्ञान हुआ है ; अतः, देवताओं के आने के उद्योत से, दृष्टिविष सर्प विषहीन हो गया